रिश्ते
मैं और मेरे में ही सिमट गये हैं सारे रिश्ते,ताऊ चाचा बुआ भतीजा दर पर ठिठके।
अंकल आन्टी भी कहाँ परवान चढ़े हैं,
नये दौर में निपट गये हैं सारे नाते रिश्ते।
खुद की ख़ातिर जीने की अब चाह बढ़ी है,
तन्हा जीवन भौतिक सुख की चाह बढ़ी है।
कभी किसी के काम में आना नादानी लगती,
निज ख़ुशियों का जहां अनूठा चाह बढ़ी है।
नहीं किसी के दुख से विचलित होते हैं अब,
रिश्तों के सुख दुख में शामिल होते हैं कब?
भाग रहे हैं धन के पीछे, वही बड़ा बतलाते,
दया धर्म मानवता की बातें मूर्ख बताते सब।
नये दौर में जाने कब क्या हो जायेगा,
ताऊ चाचा का रिश्ता भी खो जायेगा।
बहन भाई जब नहीं बचेंगे परिवारों में,
मौसी मामा बुआ फूफा सब खो जायेगा।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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