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घड़ी की सुईयाॅं टिक टिक करतीं

घड़ी की सुईयाॅं टिक टिक करतीं

घड़ी की सुईयाॅं टिक टिक करतीं ,
घुमती हैं घड़ी में यह चारों ओर ।
सुईयाॅं ये निरंतर चलती ही रहतीं ,
निरंतर मचाती रहतीं बहुत शोर ।।
सुईयाॅं निरंतर टिक टिक करतीं ,
पर टिक कभी कहाॅं यह पाती है ।
दिन रात सदा चलती यह निरंतर ,
न कभी थकती न ही अघाती है ।।
टिक टिक का यह ध्वनि करके ,
संदेश हमें सदा‌ यही सुनाती है ।
चलते रहो निरंतर चलते ही रहो ,
चलते रहना ही मन को भाती है ।।
चरैवेति चरैवेति मंत्र ही इसका ,
सबके मन को सदा ये लुभाती है ।
न रात न कभी दिन होता इसका ,
दिन रात सदा एक दिखाती है ।।
बढ़ते ही रहो सदा चलते ही रहो ,
रुक जाना तन मन की बीमारी है ।
रुक जाना सदा जीवन से रुकना ,
या जीवन का ये तो महामारी है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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