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रूठ गई गौरैया

रूठ गई गौरैया

रूठ गई गौरैया घर से
आँगन खत्म हुये


कंकरीट की सड़क-अटारी
तरुवर काट दिये
फुदक-फुदक कर सोच रही है
बैठे कहाँ जिये
हम तो केवल स्वार्थ सिद्धि के
अनुपम भक्त हुये


आती थी नित चीं-चीं करके
सबसे बतियाती थी
सुख समृद्धि से भरा रहे घर
वह यही मनाती थी
अब तो उसकी बोली-बानी
दुर्लभ रत्न हुये


बिन तेरे सूना लगता है
घर का कोना-कोना
चहल-पहल खुशियाँ भर देता
केवल तेरा होना
गौरैया के घर बनवाये
कुछ तो जत्न हुये


घर में उसका घर बन जाना
वास्तु सिद्धिका है
फिर उसमें बच्चों का होना
द्योतक समृद्धि का है
छज्जे बालकनी फिर चहके
सफल प्रयत्न हुये


रूठ गई गौरैया घर से
आँगन खत्म हुये
*
~ जयराम जय
'पर्णिका' बी-11/1,कृष्ण विहार,आवासविकास,कल्याणपुर,कानपुर-208017(उ. प्र.)
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