ये दिल मुसाफिर है
ये दिल मुसाफिर है ,सदा ये भटकता है ।
भा जाता है इसे जो ,
उसी पे अटकता है ।।
दिल ही तो दिल को ,
देखकर लुभाता है ।
मिले इसे जब योग्य ,
वहीं रूक जाता है ।।
दिल से ही दिल को ,
बढ़ता यह नाता है ।
दिल को ही दिल से ,
जोड़ता ये विधाता है ।।
लगता जिसपे दिल ,
आजीवन निभाता है ।
टुटता जब ये जिससे ,
दिल को ये रुलाता है ।।
जबतक है ये जीवन ,
सबपे आता जाता है ।
जब अंत होता जीवन ,
चुपके ये सो जाता है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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