हवा बोझिल थी !
(अर्चना कृष्ण श्रीवास्तव)हवा बोझिल थी,
हवा उदास थी !
आज सागर के-
लहर के पास थी ।
ज्वार उठते थे,
सिमट कर जाते थे ।
चक्रवातों के-
पता बताते थे ।
कभी शीतल-
तप्त हो जाती थी ,
समय कैसा है,
हवा बताती थी ।
दो किनारों से बंधा,
समन्दर भरता था ।
चक्रवातों से लड-
सफर वो करता था ।
लहर की भाषा में,
ज्वार भर आते थे ।
वेदना की परतें,
उठा कर जाते थे ।
हवा संदेशों को-
पलक में ढोती थी।
किनारे सागर के,
बहकती-खोती थी ।
ऐसी शीतल सी हवा,
ज्वार में खो जाती ।
कभी चित्कार उठती,
कभी वो रो जाती ।
अजीब प्रकृति है यह,
समझना खेल है क्या !
मनुज के भावना से,कहीं कुछ मेल है क्या?
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