चिंतक साहित्यकार थे डा मुरलीधर श्रीवास्तव 'शेखर':विधान सभाध्यक्ष
- जयंती पर साहित्य सम्मेलन में स्मृति-पुस्तकालय का हुआ लोकार्पण, प्रो केसरी कुमार भी किए गए याद , आयोजित हुई कवि-गोष्ठी ।
पटना, ३१ मार्च। संस्कृत, हिन्दी, बँग्ला और अंग्रेज़ी समेत अनेक भाषाओं के उद्भट विद्वान तथा महान शिक्षाविद डा मुरलीधर श्रीवास्तव 'शेखर' की जयंती पर, रविवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में उनकी स्मृति को समर्पित नए पुस्तकालय का लोकार्पण किया गया। अपने लोकार्पण-उद्गार में बिहार विधान सभा के अध्यक्ष नंद किशोर यादव ने कहा कि शेखर जी एक चिंतक साहित्यकार थे। वे समाज के अन्य अनेक विषयों पर अपना स्वतंत्र चिंतक रखते थे।
श्री यादव ने कहा कि शेखर जी के निधन पर अटल बिहारी बाजपेयी ने अपने शोक संदेश में यही बात कही थी। उन्होंने कहा कि जो पूर्वजों की थाती है, उसे समाज तक, अगली पीढ़ियों तक फैलाना हमारा कर्तव्य है। साहित्य सम्मेलन ने यह कर प्रशंसा का कार्य किया है।
समारोह के मुख्यअतिथि और पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि पुस्तकालय ज्ञान के मंदिर होते हैं। जिस प्रकार विचारों की मृत्यु नहीं होती, उसी प्रकार साहित्य और साहित्यकारों की मृत्यु नहीं होती। एक साहित्यकार अपने साहित्य में सदा जीवित रहता है। व्यक्ति शाश्वत नहीं होता किंतु उसका व्यक्तित्व और विचार शास्वत होता है। शेखर जी के नाम से स्थापित हुआ पुस्तकालय उनकी स्मृति को सदा जीवित बनाए रखेगा।
पटना विश्वविद्यालय के कुलपति डा के सी सिन्हा ने कहा कि किसी भी समाज का मूल्यांकन उसके साहित्यकारों को देखकर किया जाता है, क्योंकि साहित्य ही समाज का निर्माण करता है। एक पुस्तकालय, शिक्षा और साहित्य को आमजन तक पहुँचाता है।
समारोह की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कहा कि शेखर जी एक वरेण्य कवि ही नहीं महान भाषा-वैज्ञानिक थे। 'हिन्दी धातु कोश' का सृजन कर भाषा-परिष्कार के लिए उन्होंने जो कार्य किया, वह दुर्लभ है। वे विद्वता के पर्याय और वाग्मिता के दृष्टांत थे। उनकी वाग्मिता सुधी श्रोताओं के मन का हरण कर लेती थी। उनकी कविताएँ तो ललिता देवी की कृपाओं से अलंकृत होती ही थी, उनके व्याख्यान और गद्य भी काव्य-लालित्य से परिपूर्ण होते थे। हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन और प्रचार में उनका अवदान अतुल्य और नमनीय है। उन्होंने देशरत्न डा राजेंद्र प्रसाद के साथ अनेक प्रांतों में जाकर हिन्दी का प्रचार किया। उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी। विषय चाहे जो हो, साहित्य, दर्शन, कला, संस्कृति, विज्ञान, सामाजिक-सरोकार अथवा राजनीति, सभी विषयों पर वे अधिकार पूर्वक मोहक व्याख्यान देने में समर्थ थे। भारत, भारती और भारतीय संस्कृति के वे महान ध्वज-वाहक थे। उनकी स्मृति में सम्मेलन के पुस्तकालय के दूसरे खंड को समर्पित करते हुए, गौरव की अनुभूति हो रही है।
डा सुलभ ने सम्मेलन के पूर्व अध्यक्ष प्रो केसरी कुमार को भी उनकी जयंती पर स्मरण किया तथा उन्हें एक समर्थ आलोचक और प्रयोगधर्मी कवि बताया।
सम्मेलन की उपाध्यक्ष और शेखर जी की छोटी पुत्रवधु डा मधु वर्मा ने कहा कि हिन्दी साहित्य की गरिमा-वृद्धि में पिताजी का बहुत बड़ा योगदान था। पहली बार दिनकर जी पर उन्होंने ही लिखा था। दिनकर जी ने स्वयं ये कहते हुए, उनके प्रति आभार प्रकट किया।
दूरदर्शन, बिहार के कार्यक्रम-प्रमुख डा राज कुमार नाहर, सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद, शेखर जी के पौत्र पारिजात सौरभ, भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी बच्चा ठाकुर, डा पुष्पा जमुआर, डा मेहता नगेंद्र सिंह, डा ध्रुब कुमार, डा मनोज गोवर्द्धनपुरी आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
इस अवसर पर आयोजित कवि-सम्मेलन का आरंभ चंदा मिश्र ने वाणी-वंदना से किया। वरिष्ठ कवयित्री विभारानी श्रीवास्तव, डा पंकज वासिनी, रानी पाण्डेय, प्रभा कुमारी, मधु रानी लाल, डा अर्चना त्रिपाठी, डा विद्या चौधरी, डा रेणु मिश्र, सागरिका राय, डा मीना कुमारी परिहार, ई अशोक कुमार, डा एम के मधु, ऋचा वर्मा, डा प्रतिभा रानी, डा पंकज कुमार सिंह, जय प्रकाश पुजारी, डा शालिनी पाण्डेय, अनिता मिश्र सिद्धि, प्रो सुनील कुमार उपाध्यय, सिद्धेश्वर, डा मौसमी सिन्हा, डा सुषमा कुमारी, डा रेखा भारती, चितरंजन लाल भारती, नीरव समदर्शी, गोपाल विद्यार्थी, इंदु शुभंकरी, अरविंद अकेला, अश्विनी कुमार, बिन्देश्वर प्रसाद गुप्ता, भास्कर त्रिपाठी आदि कवियों और कवयित्रियों ने अपनी रचनाओं से काव्य-रसिकों का हृदय जीत लिया। मंच का संचालन कुमार अनुपम ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।वयंग्य के कवि बाँके बिहारी साव, चिंतन भारद्वाज, डा आर प्रवेश, उर्मिला नारायण, नरेंद्र देव, प्रवीर पंकज, डा इंदु पाण्डेय, गौरव अग्रवाल, सुजाता मिश्र, सच्चिदानन्द शर्मा, हिमांशु दूबे, आदि प्रबुद्धजन समारोह में उपस्थित थे।
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