जग में पूंजीवाद बहुत शर्मिंदा है l
कैसे यह साहित्य अभी तक जिन्दा है !मरने की भी फुर्सत जिसे नहीं मिलती l
बिन पैसे की काया कभी नहीं हिलती ll
धन लिप्सा से दूर अभावों में रहकर
अपना सब-कुछ त्यागे कोई चुनिंदा है l
ऐसे यह साहित्य अभी तक जिन्दा है !
हुई जिंदगी कोठरियों में कैद जहाँ l
पहरे पर डण्डा लेकर मुस्तैद वहाँ ll
जग की हर सीमा का बंधन तोड़ चला
नभ में उड़ता बन आजाद परिंदा है l
तब ही तो साहित्य अभी तक जिन्दा है !
बहुत व्यस्त सारी दुनिया दिन रैन अभी l
नहीं किसी को मिलता है चितचैन कभी ll
अग-जग की हर चकाचौंध से दूर खड़ा
अक्खड़ वेपरवाह कोई पोषिन्दा है l
इसीलिए साहित्य अभी तक जिन्दा है !
चितरंजन 'चैनपुरा'
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