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निर्वस्त्र पेंड़ों पर कोंपलों को झांकते देखता हूँ जब

निर्वस्त्र पेंड़ों पर कोंपलों को झांकते देखता हूँ जब

गुलाब की टहनियों को निर्ममता से कटते देखता हूँ जब
नवांकुरों को धरती को चीर कर झांकते देखता हूँ जब
वेदना से तड़पती नवप्रसूता के ममत्व को देखता हूँ जब
कुछ कहने की व्यग्रता में कविता कहता हूँ तब
पशुओं को बधशाला के द्वार पर प्रतीक्षा करता देखता हूँ जब
गलित कुष्ट रोगी के अहर्निश पीड़ा को सहते हुए देखता हूँ जब
सूखे हुए अस्तनाग्र को दूधमुहँ के मुख से चूसते हुए देखता हूँ जब
गरीबी से फटेहाल नवयुवती के अर्ध लसित तन को देखता हूँ जब
कुछ कहने की वेदना में और अकुलाहट में कविता कहता हूँ तब
क्षुधा तृप्ति के खातिर बिकते हुए रूह को नजरअंदाज होते देखता हूँ जब
मर्यादा की नकाब को मर्यादा के पहरुओं से तार तार होते देखता हूँ जब
मंदिरों में आकर विषय बसना को अट्टहास करते हुए देखता हूँ जब
मानवता की आँखों की मोतियाबिंद ढांकने की योजना बनते देखता हूँ जब
सोचने समझने और भ्रमित न होने की विस्वास के साथ कविता कहता हूँ तब
कलि को पुष्प बनने की अकुलाहट में बिखर जाने की घटना को देखता हूँ जब
भ्रमरों को पराग कण छोड़ पुष्प की पंखुड़ियों को नोंचते रौंदते देखता हूँ जब
प्रकृति को अपने उपहार पर अश्रु बूंदों से मानवता को पुकारते देखता हूँ जब
अट्टहास करती राक्षसी संस्कृति को सिमोलंघन करते देखता हूँ जब
प्रेमाकुल विरह श्रद्धा से युक्त कविता लिखने की जज़बा में तड़पता हूँ तब ।
अरविन्द कुमार पाठक "निष्काम"
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