कृतज्ञ बनो तो !
देखना क्या नही मिलेगा?स्नेह, प्रेम ,आशीर्वाद
क्या तुम्हें पता नहीं
प्रकृति के आँगन में
कोई भेदभाव नहीं होता
न होता है
ईश्वर के दरबार में
कोई वाद विवाद ।
वादों की माथ्थापच्ची में
सरल और सहज
निर्विवाद क्यों नही भाता है
तुम्हें मेरे दोस्त !
प्रकृति के आँगन में
गुलाब भी खिलता है
काँटों के मध्य
शेरों के साथ जंगलों में
मृग भी मारते हैं कुलाँचे।
तुम तो मनुष्य हो !
प्रकृतिवाद के मूल्यों को
क्यों नहीं करते हो आत्मसात
डरना मरने जैसा है
जीना सजग हो कर
स्वीकार करना सत्य
अभय बनता है तुम्हें
इस मृत्युलोक में
तुम मरो नहीं क्षण प्रति क्षण
यह सनातन का उदघोष नही है।
अरविन्द कुमार पाठक "निष्काम'
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