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फिर से धोखे मत खाना

फिर से धोखे मत खाना

भोली भेड़ों, बचो भेड़िये से, मत संत उसे जानो!
संत नहीं, वह ठग है, उसकी सच्चाई को पहचानो।।
शीश झुकाये आज चल रहा, कल वह ही घातक होगा।
सूझ-बूझ से निर्णय लो, मत बात सियारों की मानो।।
नीले, पीले, हरे, गेरुए रंगों से जो कर श्रृंगार।
लुटा रहे तुम सब पर इतनी हमदर्दी, अपनत्व-दुलार।।
वे ही लेंगे लूट तुम्हें कल, भूल वचन सारे अपने।
नहीं हितैषी हैं, वे छली-प्रपंची हैं, हैं रंगे सियार।।
सब के सब हैं मिले भेड़िये से, सब के सब हैं गद्दार।
अपनी भूख शांत करने के लिए, तुम्हें कल देंगे मार।।
धूर्त सियारों की बातें सुन, बरबस शीश नहीं धुनना।
सच्चे जन-प्रतिनिधियों को ही तुम अपना नेता चुनना।।
घास नहीं खा सकते कभी भेड़िये, बात रहे यह याद।
अपना मत झूठों को देकर, जीवन मत करना बर्बाद।।
भोली भेड़ों, कुटिल गीदड़ों के झांँसे में मत आना।
मान भेड़ियों को शुभचिंतक, फिर से धोखे मत खाना।।
डॉ. कुमारी रश्मि प्रियदर्शनी(राजनीतिक छल-प्रपंचों पर कुठाराघात करती हरिशंकर परसाई जी की प्रसिद्ध व्यंग्य-कथा 'भेड़ें और भेड़़िए' से प्रेरित कविता)
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