सब कुछ है, संतोष नहीं,
तो सब कुछ है बेकार ।उम्र गुजारा ढेर लगाते,
जीवन हुआ नहीं पार ।।
महल बनाया, गाड़ी पाया,
नोटों का भी ढेर लगाया।
फिर भी इच्छा मरी नहीं ,
तो और और का रट लगाया।।
खाने को दो रोटी काफी,
सोने को एक कमरा खाट ।
तन ढकने को थोड़े कपड़े,
फिर कौन सा ठाट बाट।।
महज दिखावे खातिर तुमने,
जीवन को एक यंत्र बनाया।
रोग ग्रस्त हो पड़े खाट पर,
फिर भी तुमको समझ न आया।।
अब भी तो संतोष नहीं है,
इच्छा है धनकुबेर बनना।
मुरख मन तुम फिर से सोचो,
पास नहीं है कुछ भी रहना।।
जय प्रकाश कुवंर
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