आँख चुराये चलते ऐसे क्यों जाने पहचाने लोग।
डॉ रामकृष्ण मिश्र
आँख चुराये चलते ऐसे क्यों जाने पहचाने लोग।अपनी करनी पर पछताते क्यों जाने पहचाने लोग।।
इच्छाओं की ढूह लिए बाजार बनाए खुद क़ो हैं।
अपनी बातों को सहलाते क्यों जाने पहचाने लोग।।
उनका दुख पहाड़ सा है सब को बतलाते चलते हैं ।
दुखियों को सुखिया बतलाते क्यों जाने पहचाने लोग।।
सबकी रात स्याह सी होती कुछ की हो जाती रंगीन।
दिन को कुछ काला करते हैं क्यों जाने पहचाने लोग।।
सोने सी नीयत को जिसने शीशे में मढ़ छिपा दिया।
लोहे के तमगे चमकाते क्यों जाने पहचाने लोग।।
भीड़ गुजरती जिन राहों से शूल उगाना मना नहीं
हँसी-हँसी में सच बतलाते क्यों जाने पहचाने लोगों।।
रामकृष्ण
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इच्छाओं की ढूह लिए बाजार बनाए खुद क़ो हैं।
अपनी बातों को सहलाते क्यों जाने पहचाने लोग।।
उनका दुख पहाड़ सा है सब को बतलाते चलते हैं ।
दुखियों को सुखिया बतलाते क्यों जाने पहचाने लोग।।
सबकी रात स्याह सी होती कुछ की हो जाती रंगीन।
दिन को कुछ काला करते हैं क्यों जाने पहचाने लोग।।
सोने सी नीयत को जिसने शीशे में मढ़ छिपा दिया।
लोहे के तमगे चमकाते क्यों जाने पहचाने लोग।।
भीड़ गुजरती जिन राहों से शूल उगाना मना नहीं
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