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पानी

पानी

सुख गया नदी,झील पोखर का पानी
और सुख गया तुम्हारी आंखों का पानी
तुम्हारी बेशर्म करतुतों को सुनकर
बहाया मेरे नयनों ने दो बुंद पानी
हाय रे पानी तेरा रीत भी निराला है
समूद्र में जाते ही तुम खारा हो जाते हो
बहने वाला अश्क भी खारा ही है।
अंतर तो बस इतना सा है
तेरा अहंकार ने तूझे खारा बनाया
पर गम में बहने वाला अश्क खारा है
भर दो नदी,झील और पोखर को
प्रेम दया और करुणा के पानी से
प्यार की अमृत से पाट दो दोनों किनारों को
बहा दो वैमनस्य और अहंकार को
कह दो अब न सुखेगा कभी आंख का पानी


जितेन्द्र नाथ मिश्र
कदम कुआं, पटना ।

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