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निजी विद्यालय और नेतागण

निजी विद्यालय और नेतागण

नियति का नियत भी अजीबोगरीब होता है ‌। कभी भले को ऊपर उठा देता और बुरे को नीचे गिरा देता है तो कभी बुरे को ही ऊपर उठा देता है तो भले को नीचे गिरा देता है । सदियों से ही यह देखा जा रहा है कि जो कमजोर वर्ग के लोग होते हैं वही मानवता और संस्कृति को लेकर चलते हैं और यह जमाना सदा उन्हें ही कुचलता आया है । शेष तो अपने आपमें बहुत ही धूर्त चतुर होते हैं । अपने आप में धूर्तता की कहीं कोई कमी नहीं होती है ।
निजी विद्यालय में पढ़ने हेतु बच्चों को भेजनवाले अभिभावक भी इससे अछूते नहीं हैं । गाॅंव जवार नगर में कुकुमूत्ते की तरह निजी विद्यालय हो गए हैं जिसका लाभ भी अभिभावक खूब तन मन से उठाते हैं । हर अभिभावक की इच्छा होती है कि मेरा बच्चा निजी विद्यालय में पढ़े , क्योंकि पठन पाठन का आधार आज केवल निजी विद्यालय ही रह गया है । सरकारी विद्यालय में दो परिभाषाऍं लागू हो जाती हैं । एक तो सिलेबस कमजोर होता जा रहा है क्योंकि जनता शिक्षित होकर समझदार हो गई है , जिसके कारण नेता के पीछे कोई घूमता नहीं है । इससे बेहतर तो पहले ही था जब जनता अनपढ़ थी । उस समय लोग हमेशा नेता के पीछे दौड़ते रहते थे । फलत: आज नेता के पीछे कोई दौड़ नहीं रहा है और यही कारण है कि दिनोदिन सिलेबस को कमजोर किया जा रहा है ।
जनता के मन मस्तिष्क में भी बैठा हुआ है पूर्वजों की कहावत कि सुख चाहो तो नौकरी करो , धन चाहो व्यापार ।
यहाॅं सुख चाहो तो नौकरी करो को लोग दूसरी तरीके से परिभाषित कर लेते हैं कि हमें काम न करना पड़े यही सुख है । जबकि इसके विषय में भी कहा गया है कि शिक्षक का बेटा कभी चालाक नहीं होता । इसका कारण भी यही है कि जब शिक्षक विद्यालय में नहीं पढ़ा सकते तो वे अपने बच्चे को कैसे पढाऍंगे और यही कारण है कि उनके बच्चे नालायक निकल जाते हैं ।
वैसे ही हर अभिभावक की आंतरिक इच्छा होती है कि हम अपने बच्चे को निजी विद्यालय में पढाऍं ताकि हमारे बच्चे ढंग की उचित शिक्षा प्राप्त कर सकें । अतः वे बच्चों को लेकर नामांकन के लिए आते हैं और नामांकन भी कराते हैं , दो चार माह शिक्षण शुल्क भी दे देते हैं और उसके मजबूरी सुनवाते सुनाते पूरे वर्ष भी बीत जाते हैं , वार्षिक परीक्षा भी हो जाती है और उसके बाद देखने में आता है कि अब उसका नामांकन दूसरे विद्यालय में हो गया । मजबूरियाॅं तो ऐसी ऐसी सुनाई जाती हैं कि मजबूरी सुनकर दाॅंत भी खट्टे हो जाते हैं । अभी मजबूरी है अभी क्षमा कीजिए , कारण पूछने पर पता चलता है कि अभी घर बना रहे हैं । बाद में यह भी पता चलता है कि बच्चा वहाॅं वही काम करके छोड़ दिया । पुनः अगले वर्ष या तो किसी तीसरे विद्यालय में जाता है , किंतु जब कोई पूछता है कि वहाॅं बच्चा क्यों छोड़ दिया तो उत्तर मिलता है कि वहाॅं पढ़ाई अच्छी नहीं होती है । अपना दोष कोई भी अपने सर नहीं ले सकता है । अपना दोष भी दूसरे पर थोप देना बड़ा सरल होता है ।
वैसे ही नेतागण का ही हृदय परिवर्तन और गद्दारी सदैव होता रहता है । चुनाव के चार छः माह पहले तक जो जहाॅं जिस दल में थे , उसी में रहते हैं और चुपके चुपके हर हवा को परखते रहते हैं । कब कौन सी हवा चली , पूर्वा , पछुआ , उत्तराही या दक्षिणाही । वह हवा भी शीतल है या गर्म है । तेज है या मंद है , ऑंधी है या तूफान है । सदैव वे हवा को अपने अनुकूल मापते रहते हैं । जब जिस प्रकार की हवा देखते हैं उधर पीठ फेर लेते हैं । अर्थात चुनाव से चार पाॅंच माह पहले से आचार संहिता लागू होने तक या चुनाव के एक माह पहले तक हृदय परिवर्तन और गद्दारी होता रहता है । नेतागण भी जिस प्रकार बच्चे प्रतिवर्ष विद्यालय परिवर्तन करते हैं तो नेतागण भी दल परिवर्तन करते हैं । दल बदल करने के पश्चात वे पहलेवाले दल को चोर साबित करना आरंभ कर देते हैं । उन्हें यह समझ नहीं कि अभी तक तो उसी चोरी में मैं भी शामिल था , तब ठीक था और आज जब उसे उसका प्रतिफल मिलने वाला है तो आज वह चोर हो गया तुम इंसान के इंसान ही रह गए । वही नेता एक दल जो छोड़ता है तो उस दल वाले उसे गद्दार साबित करते हैं और जिस दल में शामिल होते हैं , उस दल के नेता इसे हृदय परिवर्तन कहते हैं ।
अभिभावक और नेतागण की कैटेगरी एक ही होती है । बस थोड़ा सा का अंतर होता है । बच्चों का स्कूल बदल साल भर पर होता है तो नेतागण का दल बदल पाॅंच साल पर होता है ।
अर्थात नेतागण बच्चों और भगवान के बीच के पायदान हैं । बच्चे एक वर्ष पर विद्यालय परिवर्तन करते हैं तो भगवान लाखों वर्ष पर युग परिवर्तन करते हैं तो नेता पाॅंच वर्ष पर दल परिवर्तन करते हैं ।
जय श्रीराम
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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