बुढ़ापे में बचपन
चलो फिर से हम, बच्चा बन जायें,पानी में छप छप, दौड़ भी लगायें।
कुछ रेत के घरौंदे, बनायें- तोड़ दें,
किसी को मनायें, किसी को रूलायें।
कभी गिल्ली डन्डा, पतंग भी हवा में,
कभी कनचें खेलें, पतंग भी कटायें।
बच्चे बनकर हम, बच्चों संग खेलें,
खिलौनों संग खेलें, गुड़िया को मनायें।
कभी घोड़ा बन जायें, बच्चे हों ऊपर,
झूठ मूठ खाना, बनायें और खिलायें।
छीन कर खाना, बाँट कर भी खाना,
दूसरे की चोट पर, हम आँसू बहायें।
ऊँच नीच और छुपा छिपी भी खेलें,
जीत कर भी हारें, हारे को हँसायें।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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