भारत की 18 लोकसभाओं के चुनाव और उनका संक्षिप्त इतिहास, भाग 4
चौथी लोकसभा - 1967 - 197
देश की चौथी लोकसभा के चुनाव 1967 में संपन्न हुए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के पश्चात होने वाले यह पहले आम चुनाव थे। लाल बहादुर शास्त्री जी को किसी आम चुनाव का सामना नहीं करना पड़ा। उनके पश्चात देश की कमान श्रीमती इंदिरा गांधी के हाथों में आई। श्रीमती इंदिरा गांधी के काल में यह पहले लोकसभा चुनाव थे। इस चुनाव में देश के मतदाताओं के सामने ना तो नेहरू थे, ना शास्त्री जी थे। उन दोनों के स्थान पर इंदिरा गांधी थीं जो अभी 'गूंगी गुड़िया' से आगे कुछ दिखाई नहीं देती थीं। लोग उन्हें कॉलेज की एक छात्रा से आगे मान्यता नहीं देना चाहते थे। कांग्रेस के तत्कालीन बड़े नेताओं ने भी इंदिरा गांधी को 'गूंगी गुड़िया' के नाम से ही बोलना पुकारना आरंभ कर दिया था । कुल मिलाकर कांग्रेस के साथ-साथ देश भी नेतृत्व के संकट से जूझ रहा था।
चौथे आम चुनाव और इंदिरा गांधी
चौथे आम चुनाव के समय लोकसभा की कुल सीटों की संख्या 523 थी। इंदिरा गांधी बहुत बेहतरीन ढंग से देश को उस समय तक संभालने में असफल रही थीं। कांग्रेस से लोगों का धीरे-धीरे मोह भी भंग होता जा रहा था। यद्यपि अभी परिस्थितियां इतनी अधिक खतरनाक नहीं थीं कि कांग्रेस के लिए सब कुछ प्रतिकूल ही हो चुका हो। इंदिरा गांधी चाहे उसे समय एक गूंगी गुड़िया ही दिखाई दे रही थी पर उन्होंने मन बना लिया था कि जो लोग उन्हें गूंगी गुड़िया के नाम से पुकारते हैं, उन्हें वह हाशिए पर डालकर आगे बढ़ेंगी। कई मामलों में इंदिरा गांधी की संकल्प शक्ति अपने समकालीन नेताओं से कई गुणा अधिक थी। अपनी इसी संकल्प शक्ति के आधार पर वे आगे बढ़ीं और इतिहास में अपना नाम लिखवाया । यद्यपि उनकी यह संकल्प शक्ति कई बार डरी सहमी सी होकर निर्णय लेती हुई भी दिखाई दी। जिसके देश को गंभीर परिणाम भुगतने पड़े।
देश पहली बार किसी महिला प्रधानमंत्री के नेतृत्व में चुनाव की तैयारी कर रहा था। उन्होंने सत्ता में आने के पश्चात कांग्रेस के उन वरिष्ठ नेताओं की बातों की उपेक्षा करनी आरंभ कर दी जिन्हें उस समय पार्टी और सरकार का वरिष्ठ नेता माना जाता था । उनके भीतर 'नेहरू की बेटी' होने का बहुत बड़ा गर्व था, जिसे कांग्रेस के ही वे नेता पसंद नहीं करते थे जो अपने आप को नेहरू के बराबर का मानते थे। इन नेताओं में कामराज, मोरारजी देसाई, सी0 निजलिंगप्पा ,नीलम संजीवा रेड्डी, सत्येंद्र नारायण सिन्हा , चंद्रभानु गुप्ता, अशोक मेहता, त्रिभुवन नारायण सिंह आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
इन सभी नेताओं के लिए नेहरू कोई बहुत बड़ी तोप नहीं थे ।वह उन्हें अपने बराबर वालों में प्रथम के स्थान से अधिक मानने को तैयार नहीं थे। सरदार पटेल ने तो एक बार नेहरू जी से कह भी दिया था कि आप इस भूल में मत रहिए कि आप प्रधानमंत्री हैं तो कुछ भी कर सकते हैं। आपको याद रखना होगा कि आप बराबर वालों में प्रथम मात्र हैं।
कांग्रेस का हुआ विभाजन
चौथी लोकसभा के चुनाव हुए तो उसके पश्चात परिस्थिति निरंतर विस्फोटक बनती चली गईं। अंततः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विभाजन हो गया। तब कामराज आदि के समूह को सिंडिकेट और इंदिरा गुट को इंडीकेट कहा जाता था। कामराज बहुत ही सुलझे हुए राजनीतिज्ञ थे। कम पढ़े लिखे होकर भी वह अपनी बुद्धिमत्ता के लिए जाने जाते थे। उनके राजनीतिक कौशल का सामना करना हर किसी नेता के बस की बात नहीं थी। उनकी राजनीतिक बुद्धिमता का स्वयं नेहरू जी भी लोहा मानते थे। जब कांग्रेस का विभाजन हुआ तो पहले वह स्वयं और उनके पश्चात मोरारजी देसाई कांग्रेस(ओ) के नेता बने।
कांग्रेस के भीतर जिस प्रकार की कलह की परिस्थितियां बनती जा रही थीं, उनके चलते कांग्रेस की सांगठनिक क्षमताएं प्रभावित हो रही थीं। उस समय दो युद्धों की मार को झेल चुके देश की आर्थिक स्थिति बड़ी डांवाडोल हो चुकी थी। जिससे लोगों का राजनीतिक नेतृत्व पर विश्वास फिर से स्थापित करना इंदिरा गांधी के सामने बड़ी चुनौती थी। राजनीतिक नेतृत्व पहली बार विश्वास के संकट से जूझ रहा था। इंदिरा गांधी के लिए यह एक दु:खद संयोग ही था कि उनको ऐसे संकट से बड़ी चुनौती मिल रही थी। विश्वास के इस संकट और कांग्रेस के आंतरिक कलह ने देश में गठबंधन सरकारों का मार्ग प्रशस्त किया।
चौथे आम चुनाव में कांग्रेस की स्थिति
देश की चौथी लोकसभा के चुनाव हुए तो कांग्रेस ने 56% अर्थात 283 सीटों के साथ सदन में बहुमत प्राप्त किया। स्पष्ट है कि यह साधारण बहुमत से छूता हुआ ही बहुमत था। स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ को इस चुनाव में क्रमशः 44 और 35 सीटों के साथ दूसरे और तीसरे स्थान पर रहने का अवसर मिला। कांग्रेस द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) और बीजेएस ने भी एस0सी0 और एस0टी0 श्रेणियों के लिए आरक्षित सीटों पर अच्छा प्रदर्शन किया। कुल मिलाकर यदि देखा जाए तो कांग्रेस चौथे आम चुनाव के पश्चात एक कमजोर राजनीतिक दल के रूप में उभरकर सामने आई। यद्यपि उसे शासन चलाने के लिए बहुमत मिल गया था पर पहले जैसा प्रचंड बहुमत और जनमत उसके साथ नहीं था। राजनीति में प्रचंड बहुमत और जनमत बहुत मायने रखता है। जिस राजनेता के साथ प्रचंड बहुमत और जनमत हो वह कुछ भी करने के लिए अपने आप को सक्षम और समर्थ मानने लगता है। मूर्ख राजनीतिज्ञ इस प्रचंड बहुमत और जनमत का दुरुपयोग करते हैं। जबकि सुलझे हुए राजनीतिज्ञ प्रचंड बहुमत और प्रचंड जनमत का राष्ट्र के हित में सदुपयोग करते हैं। कांग्रेस अभी तक के चुनावों में प्रचंड बहुमत और प्रचंड जनमत के आत्मविश्वास से भरी हुई रहती आई थी पर इस बार के चुनाव परिणामों ने उसके आत्मविश्वास को चोटिल कर दिया था।
1967 के लोकसभा के चौथे चुनावों के समय देश में मतदाताओं की संख्या बढ़कर 25.2 करोड़ हो गई थी। इस चुनाव पर कुल 7.8 करोड़ रूपया खर्च हुआ था।
कांग्रेस का संघर्ष और चौथी लोकसभा
इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सत्ता में तो आ गई परंतु कांग्रेस का भीतरी कलह अभी रुकने का नाम नहीं ले रहा था। पार्टी के भीतर चल रहा संघर्ष सड़कों पर और अखबारों में भी आ गया था। जिससे संगठन की बड़ी छीछालेदर हो रही थी। जिस संगठन को अंग्रेजों ने भारतवर्ष की बागडोर सौंपी थी, वह इतनी शीघ्रता से इस प्रकार की स्थिति को प्राप्त हो जाएगा, यह किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। जब देश आर्थिक परेशानियों से जूझ रहा था, उसी समय कांग्रेस का यह अंतर्कलह अपने नए आयामों को छू रहा था। कोई भी नेता पीछे हटने को तैयार नहीं था । उनकी कार्य शैली को देखकर लग रहा था कि 'महाभारत' होकर ही रहेगा। पांच गांव लेकर गुजारा करना किसी को गवारा नहीं था। सब की इच्छा थी कि सारा 'साम्राज्य' उनके पास आ जाए।
कांग्रेस का विभाजन
इसी प्रकार की रस्साकसी के चलते दिन प्रतिदिन पार्टी पतन की ओर जा रही थी। अंत में वह समय भी आ गया जब नवंबर 1969 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विभाजन हो गया। कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एस0 निजलिंगप्पा ने अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर इंदिरा गांधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी से निष्कासित कर दिया। यह भारतवर्ष के समकालीन इतिहास का और उसके पश्चात से अब तक का भी पहला उदाहरण है जब सत्तारूढ़ पार्टी के किसी शासनाध्यक्ष को उसी की पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने पार्टी से निष्कासित करने का निर्णय लिया हो।
कांग्रेस में विभाजन हो जाने के पश्चात इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आर) के नाम से अपना स्वयं का गुट बनाया। जो लोग कांग्रेस की मूल पार्टी में रह गए थे,उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (ओ) का नाम दिया गया। जब इंदिरा गांधी को देश की प्रधानमंत्री बनाया गया तो उस समय मोरारजी देसाई जैसे नेताओं की सोच थी कि इंदिरा गांधी बहुत अधिक देर तक प्रधानमंत्री नहीं रह पाएंगी। उनकी सोच के अनुसार इंदिरा गांधी अभी एक छात्रा से बढ़कर और कुछ नहीं थीं। उनका मानना था कि देश की अनेक जटिल समस्याओं के समाधान के लिए इंदिरा गांधी अपने आप को स्वयं ही अनुपयुक्त मानेंगी और प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देंगी । तब वह स्वयं देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं । परंतु इंदिरा गांधी जब देश की प्रधानमंत्री बन गईं तो वह राम मनोहर लोहिया के शब्दों में 'गूंगी गुड़िया' होने के उपरांत भी सभी बुजुर्ग नेताओं की उपेक्षा कर अपने ढंग से शासन चलाने लगीं।
इससे कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं ने अपना समूह बनाया। इसी समूह को सिंडिकेट का नाम दिया गया। सिंडिकेट के नेता इंदिरा गांधी को 'तानाशाह' कहने लगे। इस 'तानाशाह' शब्द ने एक 'गूंगी गुड़िया' के भीतर नेतृत्व ( जिसे वास्तव में अड़ियलपन कहा जाना उचित होगा) के गुण पैदा किये। उस गुड़िया ने सोचना आरंभ किया कि यदि ये सब नेता (जो उन्हें अपने पिता की अवस्था के दिखाई देते थे) तेरे नेतृत्व से खौफ खाने लगे हैं तो निश्चय की तेरे अंदर कुछ ऐसा है जो इन्हें अखरता है और जो इन्हें अखरता है वही तेरे लिए कमाल का हो सकता है। बस, इसी सोच ने इंदिरा गांधी को 'इंदिरा गांधी' बना दिया। उनके अपने विरोधी लोगों ने ही उन्हें ऊर्जा प्रदान कर दी। यद्यपि 'तानाशाह' शब्द ने उनके भीतर कुछ इस प्रकार का भाव पैदा किया कि वह डरती और लड़खड़ाती सी आगे बढ़ने लगीं और बौखलाहट व डर के कारण ही उन्होंने एक दिन देश में आपातकाल की घोषणा करवाई।
देश के राष्ट्रपति का चुनाव और राजनीति
इस समय देश के अगले राष्ट्रपति का चुनाव होना था। इंदिरा गांधी ने अपनी ओर से वी0वी0 गिरि का नाम चलाना आरंभ किया। वे चाहती थीं कि देश के राष्ट्रपति भवन में एक ऐसा व्यक्ति बैठना चाहिए जो उनकी हर बात पर मोहर लगाने की सोच रखता हो। सिंडिकेट को ठिकाने लगाने के लिए उन्हें ऐसा करना उचित और आवश्यक प्रतीत हो रहा था । यद्यपि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए जो कुछ भी हो रहा था वह सर्वथा अनुचित, असंवैधानिक और अनैतिक था। उधर सिंडिकेट भी इंदिरा गांधी के हर कदम को बड़ी सावधानी से भांप रहा था। लड़ाई अस्तित्व की आरंभ हो चुकी थी। अस्तित्व को बचाने के लिए सिंडिकेट ने भी नया दांव चल दिया। उसने अपनी ओर से नीलम संजीवा रेड्डी को देश के अगले राष्ट्रपति के रूप में प्रचारित करना आरंभ कर दिया।
इंदिरा गांधी सत्ता में थीं और नेहरू की बेटी भी थीं। सत्ता की मलाई सबको अच्छी लगती है। इसलिए कांग्रेस के अधिकांश चाटुकार सांसद और विधायक इंदिरा गांधी के इर्द-गिर्द घूमते रहने को ही अच्छा मान रहे थे। कई लोगों की दृष्टि में इंदिरा भविष्य थीं और सिंडिकेट के सभी नेता अतीत बन चुके थे। संसार के लोगों की यह सोच है कि अतीत की बजाय वर्तमान और भविष्य को नमस्कार किया जाए। इंदिरा गांधी को अब कुछ भरोसा होने लगा था। उनके इर्द-गिर्द जमा होने वाली सांसदों और विधायकों की भीड़ उनका उत्साह बढ़ा रही थी। यद्यपि इस सबके होते हुए भी उन्हें डर फिर भी सता रहा था कि सिंडिकेट यदि एक बार हावी हो गया तो उनका राजनीतिक कैरियर सदा सदा के लिए समाप्त हो जाएगा। इसके उपरांत भी उन्होंने सिंडिकेट के विरुद्ध अपने उम्मीदवार को उतार कर अपने सांसदों और विधायकों से से कह दिया कि राष्ट्रपति के चुनाव में वे अंतरात्मा की आवाज के आधार पर अपना मतदान करें ।
वी0वी0 गिरि बने देश के राष्ट्रपति
चुनाव परिणाम के पश्चात वी0वी0 गिरि देश के राष्ट्रपति बन गए। नीलम संजीवा रेड्डी चुनाव हार गए। इंदिरा गांधी ने देश के ताकतवर नेता और अपनी कैबिनेट के वित्त मंत्री मोरारजी देसाई को उनके पद से हटा दिया। इससे मतभेद और भी अधिक गहरा गए। अब दोनों पक्षों को साथ-साथ चलने के लिए एक - एक कदम आगे बढ़ना भी कठिन होता जा रहा था। साथ चलने की सारी संभावनाऐं क्षीण होती जा रही थीं। सिंडिकेट के नेता इस बात को लेकर गहरी सदमे में थे कि संसदीय लोकतंत्र में अपनी ही पार्टी के विरुद्ध यदि अपना ही प्रधानमंत्री उम्मीदवार उतारेगा और पार्टी के नेता पार्टी द्वारा अधिकृत प्रत्याशी का समर्थन नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा ?
वास्तव में नीलम संजीवा रेड्डी की हार सिंडिकेट की हार नहीं थी, यह संसदीय लोकतंत्र की हार थी। जिसमें प्रत्येक पार्टी या राजनीतिक गठबंधन से अपने प्रत्याशी के प्रति समर्पित और निष्ठावान रहने की अपेक्षा की जाती है।
इंदिरा गांधी को कांग्रेस से निकाला गया
बात अभी रुकने वाली नहीं थी। जैसे-जैसे लोग आगे बढ़ रहे थे वैसे-वैसे ही उनके बीच की विभाजन रेखा स्पष्ट होती जा रही थी। इंदिरा गांधी ने अपने लोगों को उकसाकर कांग्रेस के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष निजलिंगप्पा के विरुद्ध हस्ताक्षर अभियान आरंभ करवा दिया। इंदिरा गांधी स्वयं कांग्रेसी लोगों को अपने पक्ष में लाने के लिए राज्यों का दौरा करने लगी थीं। उनके समर्थकों ने कांग्रेस का विशेष सत्र बुलाने की मांग की जिससे कि नये अध्यक्ष का चुनाव हो सके। कांग्रेस के तत्काल इन अध्यक्ष वस्तु स्थिति को समझ चुके थे उनकी समझ में आ चुका था कि यदि इंदिरा गांधी देश का राष्ट्रपति अपने पसंद के व्यक्ति को बनवा सकती हैं तो अब उनका अधिक देर तक अध्यक्ष बने रहना संभव नहीं है। सच्चाई को समझ कर अध्यक्ष निजलिंगप्पा की बौखलाहट बढ़ गई। जिसके कारण उन्होंने इंदिरा गांधी को खुला पत्र लिखा। उधर इंदिरा गांधी ने भी अपने अध्यक्ष की हर बात की अवहेलना करते हुए उनके द्वारा आहूत की गई पार्टी की बैठकों में जाना तक बंद कर दिया। ऐसी परिस्थितियों में कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की दो बैठकें अलग-अलग स्थान पर हुईं । एक बैठक प्रधानमंत्री आवास में और दूसरी कांग्रेस के जंतर मंतर रोड स्थित कार्यालय में संपन्न हुई। कांग्रेस कार्यालय में हुई बैठक में नेताओं ने इंदिरा गांधी को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निकाल दिया और संसदीय दल से कहा कि वह अपना नया नेता चुने। इस प्रकार कांग्रेस के दो टुकड़े हो गए। इंदिरा की पार्टी का नाम रखा गया कांग्रेस (R) और दूसरी पार्टी हो गई कांग्रेस (O)। यह घटना 12 नवंबर 1969 की है।
सरकार आ गई अल्पमत में
इस घटना के पश्चात इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आ गई। चौथी लोकसभा के चुनाव के समय इंदिरा गांधी की कांग्रेस को वैसे ही सामान्य बहुमत ही प्राप्त हुआ था। अब उसके लिए नया संकट आ चुका था। कांग्रेस ( 0) के नेता अविश्वास प्रस्ताव लेकर आने का मन बना चुके थे। वह बढ़ चढ़कर उसकी घोषणाएं कर रहे थे। तभी इंदिरा गांधी ने अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जल्दबाजी में कुछ ऐसे मित्र खोजे ,जिन्होंने अपने समर्थन का भारी मूल्य उनसे लिया। इंदिरा गांधी एक कुशल राजनीतिज्ञा थीं। उन्होंने भी तात्कालिक लाभ लेने के लिए देश के हितों की चिंता न करते हुए समर्थन देने वाले लोगों को मनचाहा मूल्य चुकता कर दिया। उन्होंने सी0पी0आई0 और डी0एम0के0 के समर्थन से कांग्रेस ( 0 ) के अविश्वास प्रस्ताव को गिरवा दिया।
आगे चलकर कम्युनिस्टों को प्रसन्न करने के लिए 1971 में इंदिरा गांधी ने देश का शिक्षा मंत्री नूरुल हसन को बनाया। जिस व्यक्ति को देश की संस्कृति का कोई ज्ञान नहीं था या जो देश की संस्कृति से ईर्ष्या का भाव रखता था, उसे देश का संस्कृति मंत्री बनाया जाना देश के बुद्धिजीवियों को भी अच्छा नहीं लगा था।
वास्तव में नेताओं के अहंकार और सत्ता स्वार्थ के चलते नूरुल हसन को देश के शिक्षा मंत्री बनने का अवसर प्राप्त हो गया। जिससे नेताओं का तो कुछ नहीं बिगड़ा, पर देश के इतिहास का सत्यानाश कर नूरुल हसन ने अपना काम कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि देश की आज की युवा पीढ़ी अपने इतिहास से कट कर रह गई है।
चौथी लोकसभा के विशेष पदाधिकारी
के.वी.के. सुन्दरम ( 20 दिसंबर 1958 से 30 सितंबर 1967)
ही चौथी लोकसभा के चुनाव के समय देश के मुख्य चुनाव आयुक्त थे। चौथी लोकसभा के अध्यक्ष नीलम संजीव रेड्डी 17 मार्च 1967 से 19 जुलाई 1969 तक रहे। जब वह राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार घोषित किए गए और कांग्रेस का विभाजन होकर कम्युनिस्टों के सहयोग से नई सरकार बनी तो उनके पश्चात गुरदयाल सिंह ढिल्लों 8 अगस्त 1969 से 19 मार्च 1971 तक शेष अवधि के लिए लोकसभा के अध्यक्ष रहे। उपाध्यक्ष के रूप में रघुनाथ केशव खाडिलकर 28 मार्च 1967 से 1 नवंबर 1969 तक और जॉर्ज गिल्बर्ट स्वेल 9 दिसंबर 1969 से 27 दिसंबर 1970 तक रहे। प्रधान सचिव एसएल शकधर ( 2 सितंबर 1964 से 18 जून 1977 तक ) थे।
चौथी लोकसभा के कुल सदस्य 523 थे। जिनमें से 520 सदस्यों को चुनने के लिए चुनाव हुए थे। चौथी लोकसभा के ये चुनाव 17 से 21 फरवरी 1967 के बीच कराये गए थे। लोकसभा के चुनाव के समय ही राज्य विधानसभाओं के चुनाव भी आयोजित किए गए, ऐसा करने वाला यह आखिरी आम चुनाव था। इसके पश्चात राज्य विधानसभाओं के चुनाव सामान्य रूप से अलग-अलग होने लगे।
( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है।)
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