भारत की 18 लोकसभाओं के चुनाव और उनका संक्षिप्त इतिहास, भाग 7
7वीं लोकसभा - 1980 - 1984
देश उस समय अनिश्चितता के दौर से गुजर रहा था। जनता पार्टी के नेताओं की निजी महत्वाकांक्षाओं ने देश को निराश किया था। ऐसे में नए चुनाव संपन्न हो रहे थे।
'जात पर, न पात पर,
इंदिरा तेरी बात पर,
मोहर लगेगी हाथ पर....'
यह नारा उस समय देश के जनमानस को छू रहा था। अभी पिछले लोकसभा चुनावों में देश के मतदाताओं ने अपने आप चुनाव लड़ा और जनता पार्टी को देश की कमान सौंप दी थी। उसी जनता जनार्दन ने इंदिरा गांधी के उपरोक्त नारे को स्वीकार कर लिया और राजनीतिक पटल से पूर्णतया गुम हो गई इंदिरा गांधी को जेल की सलाखों की ओर न जाने देकर सत्ता की सीढ़ियों पर चढ़ने का एक और अवसर प्रदान कर दिया। जनता पार्टी के समय में सत्ता में पहुंचे जो लोग इंदिरा गांधी को जेल में डालने की तैयारी कर रहे थे, देश के मतदाताओं ने उनको ही राजनीति की गुमनामी की जेल में फेंक दिया । जेल की सलाखों की ओर जाती हुई इंदिरा गांधी पर देश के मतदाताओं ने दया की । यह उसका चमत्कार था ? या जनता पार्टी के नेताओं की सिर फुटौवल का स्वाभाविक परिणाम था ? या फिर देश के मतदाताओं का परिपक्व निर्णय था ? ... आप कुछ भी कहें। पर इतना निश्चित है कि यदि यही स्थिति किसी यूरोपियन देश में बन गई होती तो सत्ता की सीढ़ियों से खींच कर नीचे धूल में फेके गए किसी नेता को वहां के लोग दोबारा यह अवसर प्रदान नहीं करते। भारत के संस्कार कुछ दूसरे ही हैं, यह भावना प्रधान देश है। इसके लोकतंत्र यही विशेषता है कि यहां लोग राजनीति में भी अपनी भावनाओं का प्रकटन राष्ट्रहित को दृष्टिगत रखते हुए करते हैं।
सातवीं लोकसभा और इंदिरा गांधी की वापसी
इंदिरा गांधी ने जनवरी 1980 में सत्ता में अपनी गौरवपूर्ण वापसी की । जनता पार्टी का तूफान जिस तेजी से उठा था, उसी तेजी से वह राजनीति के गगन मंडल के अनंत में कहीं विलीन हो गया। वह कहां चला गया ? - आज तक ढूंढे से भी नहीं मिला।
देश के राजनीतिज्ञों ने सत्ता शीर्ष पर पहुंचने के लिए 1977 के जनता पार्टी के प्रयोग को आगेचलकर बार-बार दोहराने का प्रयास किया। पर वह कभी स्थिर नहीं हो सका, क्योंकि उसका मौलिक संस्कार ही अस्थिरता और विभिन्न अहंकारी नेताओं का सम्मेलन था। अस्थिरता और अहंकार दोनों ही किसी बुलबुले के तो गुण हो सकते हैं, पर वे सत्ता की मजबूती का संकेत कभी नहीं हो सकते। देश के लोग अनिश्चितता को पसंद नहीं करते। उन्हें देश के लिए सधा सधाया नेतृत्व चाहिए। छठी लोकसभा के चुनाव के समय लोगों ने इंदिरा गांधी के अहंकार को तोड़ा था। पर जब देखा कि जनता पार्टी में तो एक से बढ़कर एक कई अहंकारी नेता मौजूद थे, जो देश को आगे बढ़ाने के स्थान पर पीछे खींचने का जोर लगा रहे थे, तब देश के मतदाताओं ने उन अहंकारियों को भी सत्ता से दूर फेंकने पर निर्णय ले लिया।
माना कि भारतीय लोकतंत्र में आज भी मतदाताओं को रिझाने के लिए अनेक प्रकार के हथकंडे अपनाए जाते हैं। जाति, संप्रदाय के साथ-साथ भाषा, प्रांत, क्षेत्रवाद के नाम पर भी उन्हें भ्रमित किया जाता है, यहां तक कि दारू और पैसे का भी खेल खेला जाता है, इसके उपरांत भी जब लोग राष्ट्रीय मुद्दों पर मोहर लगाने के लिए जाते हैं तो सामान्यतः उनका निर्णय बहुत ही परिपक्व होता है। यद्यपि ऐसा हर बार नहीं होता। पर हम जिस सातवीं लोकसभा की बात कर रहे हैं उस समय लोगों ने अपने 1977 के निर्णय को अपने आप परिवर्तित करते हुए नया जनादेश देकर यह सिद्ध किया कि जनता जनार्दन सचमुच एक दिन के लिए परमेश्वर का रूप धारण कर लेती है। वह किसको राजा बना दे और किसको राजा से रंक बना दे - यह वही जानती है।
इंदिरा गांधी में आया व्यापक परिवर्तन
इस लोकसभा चुनाव के पश्चात इंदिरा गांधी ने भी अपनी नेतृत्व क्षमता और राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया। यद्यपि उनके लिए परिस्थितियां बहुत कुछ प्रतिकूल हो चुकी थीं पर उन्होंने धैर्य और साहस से काम लिया, उन्होंने जनता से अपनी दूरी नहीं बनाई। जनता के साथ उनका संवाद निरंतर बना रहा। यही कारण रहा कि बहुत अल्प समय में जनता ने उन्हें क्षमा कर दिया और फिर से सत्ता के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। लेकिन इस बार की इंदिरा गांधी को लोगों ने सावधान कर दिया था कि यदि इस बार जाकर संविधान को ठोकर मारकर तानाशाही दृष्टिकोण अपनाकर शासन चलाने का प्रयास किया तो कभी माफ नहीं किया जाएगा। इंदिरा गांधी ने भी लोगों से कह दिया कि आप निश्चित रहें, मैं इस बार अत्यंत सावधानी के साथ शासन करूंगी।
अपने इस कार्यकाल में इंदिरा गांधी ने कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए । सातवीं लोकसभा का यह कार्यकाल प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की 31 अक्टूबर 1984 को हुई नृशंस हत्या का भी साक्षी बना। अपने इसी कार्यकाल में इंदिरा गांधी ने एशियाड - 82 का शानदार आयोजन कराया। जिससे देश के सम्मान में वृद्धि हुई। इसके साथ-साथ उन्होंने गुटनिरपेक्ष आंदोलन का वैश्विक सम्मेलन दिल्ली में आयोजित कराया और उसकी उसकी अध्यक्ष बनीं। 1984 में पंजाब के खालिस्तानी आतंकवादी आंदोलन को कुचलने के लिए उन्होंने भारी मन से ब्लू स्टार ऑपरेशन का निर्णय लिया। बाद में उनका यही निर्णय उनके लिए मृत्यु का कारण बना।
सातवीं लोकसभा के आंकड़े
संसार के अन्य देशों के इतिहास में ऐसा उदाहरण खोजना दुर्लभ है, जब कोई शासन जनता जनार्दन ने पराजित किया हो और ढाई वर्ष पश्चात ही उसे सत्ता की कमान फिर से सौंप दी हो।
पर इन्दिरा गांधी ने ऐसा करके दिखाया , निश्चित रूप से उन्होंने इतिहास रचा। वह चौथी बार देश की प्रधानमंत्री बनीं। जनवरी 1980 में हुए इन चुनावों में इंदिरा गांधी की कांग्रेस ( आई ) को 353 सीटों पर विजय प्राप्त हुई। कांग्रेस को कुल पड़े मतों का 42.69 प्रतिशत समर्थन प्राप्त हुआ। जनता पार्टी (सेकुलर) को 41 सीट मिलीं ,जबकि सीपीएम को 37 सीटों पर विजय प्राप्त हुई। इन लोकसभा चुनावों के समय देश के कुल मतदाताओं की संख्या 35 करोड़ 62 लाख 5 हजार 329 थी। जिनमें से 56.92% मतदाताओं ने मतदान में भाग लिया। कांग्रेस को 8 करोड़ 44 लाख 55 हजार 313 मत प्राप्त हुए। इस चुनाव पर
54.8 करोड़ रूपया खर्च हुआ था।
सातवीं लोकसभा के चुनावों के समय इंदिरा गांधी के लिए अनेक नेताओं की ओर से चुनौती प्रस्तुत की गई थी। बिहार में सत्येंद्र नारायण सिन्हा और कर्पूरी ठाकुर इंदिरा गांधी के विरोध में मैदान में डटे हुए थे । उन दोनों नेताओं का बिहार में अच्छा प्रभाव था। कर्नाटक में रामकृष्ण हेगड़े अपना अच्छा दबदबा रखते थे, पर वह भी इंदिरा गांधी के विरुद्ध मैदान में एक महारथी की भांति उनका रथ रोकने के लिए तैयार खड़े थे। महाराष्ट्र में शरद पवार जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप इसी काम को करने के लिए सीना तानकर खड़े हुए दिखाई दे रहे थे। उधर उड़ीसा में बीजू पटनायक का अपना ही दृष्टिकोण था, जिसके चलते वह इंदिरा के विरोध में खड़े हुए थे तो हरियाणा में देवीलाल इंदिरा गांधी के रथ को रोकने की कसरत कर रहे थे।
जनता पार्टी का दलित कार्ड
जनता पार्टी ने अपनी राजनीतिक बिसात बिछाते हुए दलित कार्ड खेलने का निर्णय लिया और बाबू जगजीवन राम को देश का अगला प्रधानमंत्री घोषित कर चुनाव लड़ने की घोषणा की। जनता पार्टी के द्वारा बाबू जगजीवन राम को देश का अगला प्रधानमंत्री घोषित किया जाना भी इन्दिरा गांधी के लिए एक चुनौती थी, क्योंकि इससे सामाजिक समीकरण बिगड़ सकते थे। राजनीति की शतरंज पर रखी इन सभी चालों को एक साथ विनष्ट करना इंदिरा गांधी जैसी कुशल राजनीतिक खिलाड़ी के लिए ही संभव था। कहना न होगा कि जब चुनाव परिणाम आए तो ये सारी शतरंजी चालें अपने आप छिन्न भिन्न हो गईं। इंदिरा गांधी ने तूफान का मुंह मोड़ दिया। जो लोग विभिन्न अस्त्र-शस्त्र लेकर इंदिरा गांधी की ओर हमलावर हुए चले आ रहे थे उन सबको नि:शस्त्र कर इंदिरा गांधी ने धराशायी कर दिया। शतरंजों को अपने आप झुकने के लिए मजबूर कर दिया। राजनीति को अपने चेरी बनाने में वह सफल रहीं। उन्होंने अपने सभी विरोधियों को यह दिखा दिया कि अभी उनके नाम का ही 'सिक्का' चलेगा। विरोधी परास्त भी हुए, पस्त भी हुए और कई अस्त भी हुए। राजनीति के क्षितिज पर बने शून्य को इंदिरा गांधी ने भरने में सफलता प्राप्त की। उनकी इंद्रधनुषी छटा समकालीन राजनीति को प्रभावित करने में सफल हुई। संसार के बड़े देशों के बड़े नेताओं ने भी उनकी राजनीतिक प्रतिभा और शक्ति का लोहा माना। उन्हें नए भारत की नई आशाओं के रूप में देखा जाने लगा। इंदिरा गांधी ने भी अपने भीतर व्यापक परिवर्तन किये और लोगों को बार-बार यह आभास कराया कि वह लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति पूर्णतया सम्मान का भाव रखती हैं।
लोगों ने इंदिरा पर विश्वास जताया
अपने चुनाव प्रचार के समय इंदिरा गांधी ने देश के लोगों की मानसिकता को पहचान कर हर स्थान पर उन्हें यह विश्वास दिलाया कि यदि वे सत्ता में लौटती हैं तो देश को एक मजबूत सरकार देंगी। लोगों ने उनकी बात पर विश्वास किया और जूतों में दाल बांटने वाली जनता पार्टी के नेताओं को लोगों ने कतई मुंह नहीं लगाया।
1977 में पंजाब विधानसभा के चुनाव हुए तो वहां पर भी कांग्रेस को भारी हार का सामना करना पड़ा था। उस समय वहां पर अकाली दल सरकार बनाने में सफल हुआ । तब कांग्रेस ने पंजाब में अपनी स्थिति को फिर से मजबूत करने के लिए जरनैल सिंह भिंडरावाला को उभारना आरंभ किया। तब किसी को यह पता नहीं था कि एक दिन यही व्यक्ति कांग्रेस की नेता की हत्या का कारण बनेगा। जिसके कारण देश को बहुत बड़ी क्षति उठानी पड़ेगी। तत्कालीन परिस्थितियों में कांग्रेस ने अपने निहित स्वार्थ में इस आतंकवादी नेता को बढ़ावा देना आरंभ किया । धीरे-धीरे इस आतंकवादी ने अपना वास्तविक स्वरूप दिखाना आरंभ कर दिया। अब कांग्रेस को यह ना तो उगलते बन रहा था और ना सटकते बनता था।
इंदिरा गांधी जब दोबारा सत्ता में आईं तो उन्होंने पंजाब में चल रहे आतंकवाद को शांत करने और सिखों को यह दिखाने के लिए कि उनके लिए मेरे मन में कितना स्थान है, ज्ञानी जैल सिंह को पहले देश का गृहमंत्री बनाया और उसके पश्चात देश के तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीवा रेड्डी का कार्यकाल पूर्ण होने पर 25 जुलाई 1982 को देश का राष्ट्रपति बनाया। ऐसे आरोप भी लगाये गये कि जिस समय ज्ञानी जैल सिंह देश के राष्ट्रपति थे, उस समय जरनैल सिंह भिंडरांवाले का देश के राष्ट्रपति भवन में आना-जाना होता था। यहां तक कि इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी के बारे में भी कहा जाता है कि वह भी भिंडरांवाले का विशेष सम्मान करते थे।
भिंडरांवाला और खालिस्तानी आंदोलन
1980 के लोकसभा चुनाव आए तो उस समय इस आतंकवादी नेता ने कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार करने का काम भी किया था। सचमुच यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण था कि कोई आतंकवादी कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार करे। इंदिरा गांधी ने एक आतंकवादी को अपने लिए चुनाव प्रचार के लिए मैदान में उतारकर सचमुच भारी भूल की थी।
धीरे-धीरे इसकी आतंकवादी गतिविधियां आगे बढ़ने लगीं। 9 सितंबर 1981 को 'पंजाब केसरी' समाचार पत्र के संस्थापक संपादक और स्वामी लाला जगत नारायण को गोलियों से भून दिया गया। लाला जगत नारायण आतंकवाद और आतंकवादियों के बारे में निर्भीकता के साथ लिखते थे। वह एक राष्ट्रवादी संपादक थे। उन्होंने भारत की आजादी की लड़ाई में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उसके पश्चात 12 मई 1984 को 'पंजाब केसरी' के ही संपादक और लाला जगत नारायण के पुत्र रमेश कुमार को भी इसी प्रकार आतंकवादी घटना का शिकार होना पड़ा। जब इंदिरा गांधी ने दिल्ली में एशियाड - 82 का आयोजन कराया तो उस समय भी भिंडरावाला ने यह धमकी दी थी कि वह इन खेलों के दौरान खालिस्तान के समर्थन में दिल्ली में प्रदर्शन करेगा।
अपने लिए राजनीतिक लाभ देने वाले इस आतंकवादी को कांग्रेस प्रारंभ में दूध पिलाती रही। बाद में अपने द्वारा पाले पोसे गए इसी आतंकवादी को ठिकाने लगाने के लिए कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी को पंजाब के अमृतसर में स्थित स्वर्ण मंदिर में सेना भेज कर 'ब्लू स्टार ऑपरेशन' का दु:खद निर्णय लेना पड़ा । जिस पर हम पूर्व में प्रकाश डाल चुके हैं।
जनसेवा और राजनीति
राजनीति जनहित के लिए होती है । उसके लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि होता है। जन सेवा और राष्ट्र सेवा राजनीति में जाने वाले व्यक्ति की साधना का केंद्र होता है । जब व्यक्ति संकीर्ण मानसिकता के साथ राजनीतिक निर्णय लेता है या आगे बढ़ने का प्रयास करता है तो उसकी राजनीति का जनहित और राष्ट्र हित दोनों प्रभावित हो जाते हैं। उसकी धुरी बिगड़ जाती है। उसके चिंतन की नाभि टहल जाती है। उसके चिंतन का केंद्र खिसक जाता है। जिससे वह राष्ट्र के लिए बोझ हो जाता है। जन के लिए वह कोई तंत्र स्थापित नहीं कर पाता, इसके विपरीत वह तंत्र को ही नष्ट करने लगता है या कहिए कि वह तंत्र के लिए विनाशकारी सिद्ध होने लगता है। ऐसा नायक नायक नहीं होता वह खलनायक होता है। कभी-कभी लोग अपने आप अपनी नियति, अपनी सोच और अपने चिंतन के केंद्र को बिगाड़ लेते हैं। जिससे उनकी बहुत बड़ी साधना भी थोड़ी सी देर में भंग हो जाती है और वह अपनी ऊंचाई से गिरकर बहुत नीचे आ पड़ते हैं। नायकों को खलनायकों के साथ उठने बैठने से भी परहेज करना चाहिए। यदि चोर की संगति करोगे तो कपड़े एक न एक दिन जलेंगे अवश्य।
हमें इंदिरा गांधी और भिंडरावाला के बारे में सोचना चाहिए कि यदि इंदिरा जी इस आतंकवादी के साथ प्रारंभ में प्यार की पींग न बढ़ाती और एक दूरी बनाकर उस पर नजर रखते हुए आगे बढ़ती तो इतिहास की कई दर्दनाक घटनाएं ना होती। अनहोनी तभी होनी बनती है जब अनहोनी को होनी बनाने का प्रयास किया जाता है। यदि अनहोनी को न होने देने का संकल्प लिया जाए अर्थात सारे विकल्पों को बंद कर दिया जाए ,केवल एक ही संकल्प पर विचार किया जाए कि अनहोनी को होने नहीं देना है तो राजनीति बहुत ऊंचे चरित्र को छू जाती है। तब वह सबके लिए संरक्षिका बन जाती है। राजनीति का यह दिव्य स्वरूप दंड की अवधारणा पर टिका होता है।
सातवीं लोकसभा ने देखीं कई अनहोनी
राजनीति राष्ट्रनीति का पर्याय है। उसकी ऊंचाई का नाम है। राष्ट्र नीति दंड के आधार पर चलती है। इसलिए कहा जाता है कि प्रशासक का कठोर होना आवश्यक होता है। उसकी यह कठोरता देश की सज्जन शक्ति के विरुद्ध न होकर देश की दुर्जन शक्ति के विरुद्ध होनी चाहिए। पर जब नेता दुर्जन शक्ति के साथ उठना बैठना आरंभ कर दे और दुर्जनों का देश के राजा के महलों में निर्विघ्न आना-जाना आरंभ हो जाए तो 'ब्लू स्टार ऑपरेशन' की भूमिका बन ही जाती है। इस आने जाने से ही उभरता है नवंबर - 84 के दंगों का वह विकृत स्वरूप जो देश की लोकतांत्रिक मर्यादाओं को और हमारे समाज की उच्च परंपराओं को तार-तार कर गया था। अंत में इसी आने जाने की अंतिम परिणति होती है किसी प्रधानमंत्री का उसी के अंगरक्षकों के द्वारा मार दिया जाना।
देश की सातवीं लोकसभा ने इन सब अनहोनियों को देखा।नेताओं के संकल्प विकल्पों में झूलने की लक्ष्मण झूला को भी देखा। जिस पर वह कभी नदी के इस पार तो कभी उस पार आने जाने का आनंद लेते रहे। वे सही समय पर सही निर्णय लेकर राष्ट्रविरोधियों के विरुद्ध कठोरता का व्यवहार नहीं कर पाए ,जब किया तो उस समय तक पानी सिर से गुजर चुका था।
जब पानी सिर से गुजर जाता है तो कई बार सिर नीचा करके ही रोना पड़ता है। हमने 1962 के उस नेहरू को भी देखा था जिन्होंने समय रहते चीन जैसे दुष्ट पड़ोसियों को अनदेखा किया और जब चीन ने हमारे देश को युद्ध के मैदान में हराया तो नेहरू ने देश की संसद में यह गीत गवाया कि 'ए मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी....!!!'
.....और तब रोना ही पड़ता है
क्या आवश्यकता थी देश के लोगों को रुलाने की और स्वयं रोने की? पर जब सही समय पर सही निर्णय नहीं लिया जाए तो रोना ही पड़ता है। साथ में अन्य लोगों को रोने के लिए प्रेरित भी किया जाता है। बस, यही बात 7 वीं लोकसभा के अंतिम दिनों में हो रही थी । जब एक से बढ़कर एक नई - नई घटनाएं घटित होती जा रही थीं। अंत में जब देश की सबसे बड़ी नेता इंदिरा गांधी का बलिदान हुआ तो फिर कांग्रेस ने देश के लोगों का इसी बात के लिए आवाहन किया कि 'आओ! सब मिलकर हमारे साथ रो लीजिए।तब देश की आत्मा इन कांग्रेसियों से पूछ रही थी कि आपके कर्मों के लिए रोया जाए या देश की बड़ी नेता के बलिदान पर रोया जाए?
सातवीं लोकसभा के पदाधिकारी
सातवीं लोकसभा के चुनाव के समय देश के मुख्य चुनाव आयुक्त एस.एल. शकधर (18 जून 1977 से 17 जून 1982) थे। सातवीं लोकसभा के अध्यक्ष डॉ बलराम जाखड़ बनाए गए। जिन्होंने 22 जनवरी 1980 से 15 जनवरी 1985 तक इस पद पर कार्य किया। उनके साथ श्री जी0 लक्ष्मणन को उपाध्यक्ष का दायित्व निभाने का अवसर प्राप्त हुआ । जिन्होंने 1 दिसंबर 1980 से 31 दिसंबर 1984 तक अपने पद पर सफलतापूर्वक कार्य किया। प्रधान सचिव के रूप में श्री अवतार सिंह रिखी रहे। जिन्होंने 10 जनवरी 1980 से 31 दिसंबर 1983 तक अपने पद पर रहते हुए कार्य किया। उसके पश्चात डॉ सुभाष सी कश्यप ने 31 दिसंबर 1983 से 31 दिसंबर 1984 तक अपने पदीय दायित्वों का निर्वाह किया। इस समय देश में छठी पंचवर्षीय योजना चल रही थी, जिसका कार्यकाल 1980 से 1985 निश्चित किया गया था। इस योजना का मुख्य उद्देश्य कृषि और संबंधित क्षेत्र में रोजगार के साधनों का विस्तार करना, जन उपभोग की वस्तुओं को तैयार करने वाले कुटीर एवं लघु उद्योगों को बढ़ावा देना और न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम द्वारा न्यूनतम आय वर्गों की आय बढ़ाना था। इस पंचवर्षीय योजना में कांग्रेस की इंदिरा सरकार ने विकास के नेहरू मॉडल को अपनाने का प्रयास किया। जिसका लक्ष्य एक विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था में गरीबी की समस्या पर सीधा प्रहार करना था।
पंजाब के आतंकवाद के चलते सरकार गरीबी हटाने के अपने लक्ष्य में तो ना सफल होनी थी और ना हुई। गरीबी हटाने का उसका संकल्प विकल्पों में कहीं खोकर रह गया और देश की जनता मृग मरीचिका का शिकार बनी रह गई।
(लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)
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