भृगुकुल कमल पतंग महर्षि परशुराम
अग्रतः
सकलम् शास्त्रम् पृष्ठतः सशरः धनु की प्रतिमूर्ति भृगुकुल कमल पतंग महर्षि परशुराम की आज जयन्ती है।सहस्रावाहु के सहस्र वाहुँओं को काट कर जिसने उसे अमर कर दिया,सहस्रराम आज का सासाराम बसाकर ,उन्हें हजार वार प्रणाम है।
सात चिरंजीवी प्रतिष्ठाओं में एक उनका भी नाम आता है-
अश्वत्थामा वलिर्ब्यासो हनूमानश्च विभिषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिर जीवन:॥
जिन्होंने अपने बाहुबल से अपने पिता महर्षि जमदग्नि को सप्त ऋषियों में स्थापित किया था , महर्षि भृगु के पौत्र और भगवान शिव के शिष्य रहे महर्षि परशुराम के शौर्य को कौन नहीं जानता ! इन्होंने महर्षि कश्यप से वैष्णव मंत्र लिया था ।समुद्र के बढ़ते अतिक्रमण को रोकते हुए उन्होंने गुजरात से केरल तक समुद्र को पीछे धकेल दिया था जो आज कोंकण ,गोवा, केरल के रूप में विद्यमान है ।पिता की आज्ञा से अपनी माता रेणुका का वध करने का अपजस इन्हें मिलता है ,परंतु पिताज्ञा पालन से खुश होकर पिता ने इनसे आशीर्वाद मांगने को कहा ।इन्होंने अपनी माता के जीवन का आशीर्वाद मांगा और माता जी जीवित हो गईं । इस तरह परशुराम मातृ- पितृ और गुरु भक्त दिखाई देते हैं ।गुरु भक्त के रूप में इन्हें जब ज्ञात हुआ कि शिवजी का धनुष" पिनाक" टूट गया,तो एक क्षण भी बिना रुके धनुष यज्ञ स्थल पर पहुंच जाते हैं । उस समय राजा जनक के संकल्प का प्रतिरक्षण करते हुए कहा था क़ि श्री राम प्रभु ने तोड़ा नहीं, श्री राम प्रभु के द्वारा छूने से ही धनुष टूट गया । उन्होंने तोड़ा नहीं था, स्वत ही टूट गया -
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छुवत ही टूट पिनाक पुराना ।
मैं केहीं भांति करौं अभिमाना ॥
परशुराम का आगमन उस परिस्थिति में होता है जब वहाँ उपस्थित चतुर्विध हारे सभी राजा बगावत छेड़ देते हैं और कहते हैं-
धनुष तोड़ने से क्या होगा ,सीता का वरण मैं ही करूंगा ,ऐसा सभी राजाओं का कहना था ।-
टूटे धनुष चाँड़ नहिं सरई ।
हमही अक्षत कुँअरि को बरई ॥
आगे भीषण युद्ध की आशंका तो थी ही ,युद्ध भी संन्निकट दिख रहा था । मिथिला में बिखरती खुशी सिमटने लगी । महर्षि परशुराम का आगमन उसी समय होता है । गोस्वामी जी लिखते हैं -जब परशुराम पहुंचते हैं ,उस समय जनकपुर की नारियाँ विकल हो खुशी को क्रोध में बदल कर सभी उच्छृंखल राजाओं को गाली बक रही थीं । परशुराम जी का आगमन होता है -
तेहि अवसर सुनि सिवधनु भंगा ।
आयउ भृगुकुल कमल पतंगा ॥
महर्षि परशुराम ने किसी से कुछ कहा नहीं,वे उछृंखल राजा अपने आप डर गए ।
देखी महिप सकल सकुचाने ।
बाज झपट जनु लबा लुकाने ॥
परशुराम जी का वेष -भूषा ,उनकी मुखाकृति और वृति को देखने की शक्ति और समय किसमे था ।सिर्फ श्री राम और लक्ष्मण ही परशुराम जी का राजा,ब्राह्मण और मुनि का समन्वित रूप देख रहे थे -
गौर सरीर भूति भल भ्राजा ।
भाल विसाल त्रिपुंड बिराजा ॥
सीस जटा ससि बदन सुहावा ।
रिसवस कछक अरुन होइ आबा
भृकुटी कुटिल नयन रिस राते ।
सहजहूँ चितवत मनहूँ रिसाते ॥
बृषभ कंध उर वाहु विसाला ।
चारु जनेऊ माल मृगछाला ॥
कटि मुनि बसन तून दुइ बांधे ।
धनु सर कर कुठारु खल कांधे ॥
सांत बेस करनी कठिन, बरनी न जाइ सरूप ।
धरी मुनि तनु जनु वीर रसु, आयउ जँह सब भूप ॥
देखत भृगुपति बेसु कराला ।
उठे सकल भय विकल भिआला ॥
पितु समेत कही-कही निज नामा ।
लगे करन सब दंड प्रणामा ॥
जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी ।
सो जानइ जनु आइ खुटानी ॥
महर्षि परशुराम का आगमन जिस तरह ध्वनि सुनकर, धनुष की टंकार सुनकर होता है ,आज दुनिया के वैज्ञानिक उस गति से कहीं पहुँचकर दिखा तो दें ! अगर यह सम्भव नहीं है तो भारत को आदर के साथ प्रणाम तो करें ।
इसलिए हमारे विद्यार्थियों को ,युवाओं को परशुराम के जीवन से शिक्षा लेनी चाहिए । परशुराम किसी से कुछ कह नहीं रहे हैं उनके डर से सभी राजा अपने- अपने आसन के नीचे छुप रहे हैं और गर्दन निकाल- निकाल कर दंड प्रणाम कर रहे हैं ।
पितु समेत कही-कही निज नामा ।
लगे करन सब दंड प्रणामा ॥
अपने पिता के प्रतिशोध में वहुवार पृथ्वी को क्षत्रि बिहीन करने वाले महर्षि परशुराम अन्त में एक क्षत्रीय को ही अपना शारङ्ग देकर महेनद्रगिरि पर तपस्या करने चले गए ।
कहि जय जय जय रघुकुल केतू ।
भृगुपति गए वनहिं तप हेतू॥
उनके हाव-भाव से उनके बॉडी लैंग्वेज से शिक्षा मिल रही है ।हमारे युवाओं को इससे सीख लेनी चाहिए कि हम किस भारत की संतान हैं ।संतान जब संत के साथ होती है तो वह संतान है अन्यथा शैतान हो जाती है । संतान बनने-बनाने की प्रवृत्ति सिर्फ भारत में ही है ।इसीलिए हम अपने देश भारत को माँ कहते हैं जय परशुराम।
डॉ सच्चिदानन्द प्रेमी
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