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मन के मेरे भाव

मन के मेरे भाव

कितने वदनसीब है 
देखो वो बच्चें। 
होते हुए माँ बाप के
पर रहते अकेले। 
किस्मत के मारे है
या किस्मत के धनी। 
कौन करें मूल्यांकन 
स्वयं सोच लो तुम।। 

कहते है स्वर्ग नरक
घर में होता है। 
स्वयं करो मेहसूस तुम
रहकर माँ बाप संग। 
फर्क तुम्हें जल्दी ही 
समझ आ जायेगा। 
दादा-दादी संग बच्चों का
खूब लगेगा मन।। 

भाग दौड़ की जिंदगी
नही दे पाती वक्त। 
तभी तो देखो बच्चें
नही समझते किसी को। 
और नही रखते वो
मतलब भी किसी से। 
सिर्फ मिलते जुलते है
छुट्टी के दिन मम्मी पापा से।। 

मियां बीबी बच्चें तक
सीमित हुआ परिवार। 
न उसमें दादा-दादी हैं
न चाचा-चाची आदिजन। 
फिर कैसे आ पाएंगे
बच्चों में पारिवारिक संस्कार। 
कौन करेगा फैसला 
इसका कौन है जिम्मेंदार।। 

जय जिनेंद्र
संजय जैन "बीना" 
मुंबई
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