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रसोई और प्रसाद

रसोई और प्रसाद

एक बार एक संत महात्मा ने अपने आश्रम में अपने शिष्यों के साथ प्रसाद ग्रहण करते हुए उन्हें बताया कि कैसे आश्रम से बाहर निकल कर नगर भ्रमण करते हुए उन्हे भुखे रह जाना पड़ा था। संत लोगों के आश्रम में शुद्ध सात्विक भोजन भात दाल और सब्जी बनता है । उस भोजन को वे प्रसाद कहते हैं और उसे भगवान को अर्पित कर स्वयं ग्रहण करते हैं। एक बार वे संत अपने आश्रम से निकल कर नगर भ्रमण के लिए गए। उन्होंने अनेकों जगहों पर संत समागम और प्रवचन का आयोजन किया। इस क्रम में वे सुदूर एक गाँव में पहुंचे। अब उन्हें भुख की अनुभूति हो रही थी, अतः वे एक घर में जाकर गृहस्वामी से प्रसाद खिलाने की याचना की। गृहस्वामी ने उन्हें भोजन कराने की स्वीकृति प्रदान की। उन्होंने संत महात्मा को दही चूड़ा भोजन करने के लिए कहा , जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया और आगे दुसरे दरवाजे पर चले गए। वहाँ भी महात्मा ने गृहस्वामी से प्रसाद खिलाने का प्रस्ताव रखा। उस गृहस्वामी ने भी भोजन कराना स्वीकार किया और महात्मा जी को पुड़ी कचौड़ी सब्जी आदि खिलाने का प्रस्ताव रखा। इस बार भी संत महात्मा ने उसे स्वीकार नहीं किया और एक तीसरे गृहस्वामी के दरवाजे पर चले गए। महात्मा जी के याचना अनुसार इस गृहस्वामी ने उन्हें प्रसाद खिलाने के प्रस्ताव को स्वीकार किया और महात्मा जी को उनके यहाँ बना प्रसाद ग्रहण करने को कहा। महात्मा जी बड़ा खुश हुए कि इस गृहस्थ के घर में मुझे प्रसाद ग्रहण करने को मिलेगा।
हिन्दू गृहस्थ लोगों के घर में भोजन परंपरा अनुसार रसोई घर में बनता है। रसोई घर में घर के कुलदेवता भी स्थापित रहते हैं और उस घर को लक्ष्मी भंडार घर भी कहा जाता है। उस घर की विशेष रूप से भोजन बनाने के पहले और पुनः बाद में, रोज सुबह शाम सफाई, लिपाई पुताई होती है। घर की जो भी स्त्री भोजन बनाने के लिए और भोजन परोसने के लिए रसोई घर में जाती है, वह स्वयं स्नान पवित्र होकर साफ सुथरा वस्त्र धारण कर भोजन बनाती है और परोसती है। भोजन तैयार हो जाने के बाद जो लोग रसोई घर में भोजन करने के लिए जाते हैं वे भी स्नान कर तथा हाथ पैर धो कर लकड़ी के पीढ़ी पर बैठ कर भोजन ग्रहण करते हैं। हिन्दू संस्कृति में पके हुए अन्न को ग्रहण करने को भोजन करना कहते हैं। भोजन करने की क्रिया को खाना खाना विधर्मियों की भाषा है और ऐसा मलेच्छ लोग ही कहते हैं। विशेष रूप से संत महात्मा और साधु संन्यासी तो भोजन करने की जगह खाना खाने को बोलना कत‌ई स्वीकार नहीं करते हैं।
उस दिन उस गृहस्वामी ने बड़े ही आदर सत्कार से महात्मा जी को अपने घर पर स्वागत किया और उनके लिए शुद्ध सात्विक प्रसाद बनवाया। स्नान ध्यान करने के उपरांत महात्मा जी को रसोई घर में भोजन कराने के लिए ले जा कर पीढ़ी पर बैठाया। सामने लोटा ग्लास में जल लाकर रख दिया। अब थाली में प्रसाद सजाकर एक स्त्री महात्मा जी के आगे परोसने के लिए आयी। वह स्त्री मैले कुचैले वस्त्र धारण किए हुए थी और उसके शरीर के दुर्गंध निकल रहा था। उसने महात्मा जी के सामने भोजन की थाली रखते हुए उनसे खाना खाने के लिए आग्रह किया। महात्मा जी उस आग्रह को स्वीकार नहीं कर सके और हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए तथा वहाँ से भी बिना भोजन किए निकल पड़े और अपने आगे की यात्रा को स्थगित कर शीधे अपने आश्रम लौट आये।
इस तरह अपने आश्रम से बाहर निकल कर नगर गाँव भ्रमण के दौरान संत महात्मा जी को भुख लगने के समय अनेक गृहस्वामियों के तरफ से भोजन कराने की स्वीकृति आयीं और परिस्थितियां भी बनीं, परन्तु किसी न किसी कारण वश उन्हें प्रसाद किसी भी घर में नहीं प्राप्त हुआ और भुखे रहना पड़ा। जय प्रकाश कुवंर
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