बचपन की बात बस, बचपने से सीखिए,
युवावस्था-आये बुढापा, बचपन ना जाने दीजिये।बचपन की मासूमियत, मुख पर बरकरार हो,
कर्मो और विचारों को, कुछ ऐसा भाव दीजिये।
धीर हों- गंभीर हों, साहसी व वीर हों,
सरलता- सौम्यता का, आचार विचार कीजिये।
बचपन है खिलता गुलाब, चंपा- चमेली जुही का बाग़,
कोमलता जीवन में रहे, खुशबू बाँटा कीजिये।
फूलों सा जीवन बनाइये, निर्लिप्त भाव रहे बना,
शव हो या देव हों, जीवन समर्पित कीजिये।
रखें न दिल में हम कभी, किसी बदले की भावना,
रूठने और मनाने का खेल, बचपने से सीखिए।
जाति-धर्म, ऊँच- नीच, नहीं यहाँ कोई भेद है,
बाँट कर पीना व खाना, और जीना सीखिए।
चोट लगती गर किसी को, रोने लगता दूसरा,
दर्द के भी दर्द का, अहसास करना सीखिए।
छल- कपट, अहंकार क्या, जाने नहीं है बचपना,
प्यार का संसार सारा, बचपने से सीखिए।
खोये नहीं कहीं बचपना, बचपने का दोस्तों,
बचपन को बचपन की तरह, विकसित होने दीजिये।
छीनो न उनसे तुम जमीं, दे दो उन्हें सारा गगन,
प्रकृति के साथ मिल, बचपन को बढ़ने दीजिये।
आप तो बूढ़े हुए, तेरे और मेरे में बँट गए,
बच्चों के मन पर भेदभाव, मत थोपा कीजिये।
सीख लें उनसे सरलता, नव शिशु की किलकारियाँ,
तनाव मुक्त जीवन जियें, बुढापे को बचपन दीजिये।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
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