"पत्थरों का दौर"
कभी प्रेम था मधुर, अब बाज़ार है सारा,दिलों में थी चाहत, अब मतलब है सारा।
पहले मिलते थे मुस्कान लिए, अब मिलते द्वंद्व,
पहले थे सब अपने, अब तो सब पराए सनम।
पहले प्रेम था दिलों में, अब लेन-देन का दौर,
पहले सच था हथियार, अब झूठ है तलवार।
पहले मिलजुल कर रहते थे, अब अकेलेपन का बाज़ार,
पहले इंसान थे हम, अब बन गए हैं पाषाण।
तकनीक ने तरक्की की, मगर खो गया है प्यार,
सुख-सुविधाएँ बढ़ीं, मगर मिट गया है ईमान।
तारीख़ हज़ार साल में बस इतनी सी बदली है,
तब दौर पत्थर का था, अब लोग पत्थर के हैं।
क्या यही बदलाव था जिसकी हमने कामना की थी?
क्या यही प्रगति है जिसके लिए हमने मेहनत की थी?
सोचने का वक्त है, लौटने का वक्त है,
मानवता को बचाने का, प्रेम को जगाने का वक्त है।
आइए मिलकर करें प्रयास,
बनाएं फिर से वो दुनिया, जहाँ हो बस प्यार और विश्वास।
तारीख़ बदल सकती है, मगर हम नहीं बदलेंगे,
प्रण करें हम इंसान रहेंगे, पत्थर नहीं बनेंगे।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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