प्यार का बाजार
क्यों नाचूॅं मैं किसी के आगे पीछे ,प्यार के बाजार ईर्ष्या बिक रहा है ।
नहीं होता वहाॅं इंसानों का गुजारा ,
वहाॅं राम रूपी रावण टिक रहा है ।।
सज्जन सर्वत्र आज शांत पड़े हैं ,
दुर्जन ही सर्वत्र आज चीख रहा है ।
दुर्जनों के हो रहे आज बल्ले बल्ले ,
सज्जनों के मिलते कष्ट दीख रहा है ।।
बाजार की दुकानें शीघ्र होतीं बंद ,
गाॅंजा दारू भाॅंग धड़ल्ले बिक रहा है ।
पुराने पूर्व से ही बन गए हैं नशेड़ी,
नया भी संग उनके सीख रहा है ।।
सामने पड़ी हैं जरूरत की सामानें ,
पीछे छुपी हैं मादक द्रव्य नशीले ।
दुर्जनों की ही दुकानें ये सजी हैं ,
सज्जन शर्म से अब पड़ रहे पीले ।।
इसी को शायद कलियुग हैं कहते ,
राम भी न जानें कहाॅं अब गुम हैं ।
गया आदरसूचक आप का जमाना ,
आज बड़े छोटे सब हेतु ही तुम है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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