समझ रहे जो पैसे से ही, जग में सब कुछ मिल जाता है,
धन के अहंकार में डूबा, खुद को ईश्वर बतलाता है।औक़ात नहीं दो कौड़ी की, धन दौलत के ढेरों की,
मौत खड़ी हो सम्मुख जिसके, सबका मौल लगाता है।
धन दौलत से बिस्तर मिलते, नींद कहाँ से लाओगे,
शिक्षा डिग्री मोल मिल गयी, ज्ञान कहाँ से पाओगे?
मृगतृष्णा में उलझ रहे, दौलत की भूख नहीं मिटती,
बच्चे निरंकुश घूम रहे, संस्कार कहाँ सिखलाओगे?
गाड़ी बंगला नौकर चाकर, धन से सब पा सकते हो,
भौतिक सुख के ढेर बैठकर, खुद पर इतरा सकते हो।
सुख के साधन सभी जुटाए, क्यों मन व्याकुल रहता,
सन्तुष्टि आधार हो जीवन, ख़ुशियों को भी पा सकते हो।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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