मेरी आँखों में जीवन के
डॉ रामकृष्ण मिश्र
मेरी आँखों में जीवन केचित्र अनेक झलक उठते हैंं।
किन्तु सभी बिखरे- बिखरे- से
और परस्पर अनसुलझे से।।
बचपन भी क्या काठी घोड़ा!
आँगन -गली शहर से जोड़ा।
गोली, गुपची , संगी साथी
हाथ -हाथ पर राह निगोड़ा।।
चक- चंदे से ऊँचाई तक
कुछ विन समझे कुछ समझे से।।
युवा दृष्टि की सुलह- सफाई
अल्हड़ता की ठोस कमाई।
कमनीयता भरे पायल ने
छीन लिया सारी चतुराई।।
रात चाँदनी भरी बाँह में
और बाण ज्यो शिर ऊपर से।।
थके पाँव ऊपर की सीढ़ी
बैठा, नीचे अगली पीढ़ी।
मेरी साँसों की मिनती में
लगी और चिंतित भी थोड़ी।।
संचित का आबंटन करती
कुछ तो मन से कुछ बेमन से। ।
रंग- मंच से जीव -जगत में
कैसे -कैसे लोग जुगत में
स्वार्थ ओढ़ सब खो जाते हैं ं
भूमि छोड़ व्यामोह अनत में।।
ममता की दीवार गिरे कब
कब मोहित उभरेगा घर से।।
***********रामकृष्ण
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