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आप -बीती

आप -बीती

डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
अभी फेसबुक पर मैंने 'संबोधन 'शीर्षक से अपनी व्यक्तिगत विचारधारा के अनुरूप उदारतावाद के पक्ष में आवाज उठाई थी, उससे कुछ व्यक्तियों के पेट में दर्द हो गया--ऐसे व्यक्तियों के पेट में जो कट्टरपंथी विचारधारा के हैं। कोई परेश मिश्र नामक व्यक्ति ने मेरे प्रति अत्यन्त कुत्सित शब्दों का प्रयोग किया, जिस पर मैंने उसे ब्लौक कर दिया।
मैं एतद्द्वारा स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि राजनीति से मेरा कोई सरोकार नहीं है। मैं धर्मनिष्ठ आध्यात्मिक साधक-चिन्तक और साहित्यिक तथा साहित्यकार हूँ ।उदार मानवतावादी स्वतन्त्र चिन्तन में मेरी आस्था है।
नफ्रतपरस्ती और कट्टर-मतान्धता का मैं विरोधी हूँ और इस प्रवृत्ति को राष्ट्रीय अस्मिता का घोर घातक और विनाशकारी मानता हूँ। घृणाकारी प्रवृत्ति विघटनकारी है ,संघटनकारी नहीं। यह प्रवृत्ति तोड़ती है, जोड़ती नहीं। इस देश में कोई भी बाहरी नहीं है ,सभी इसी देश की पावन मिट्टी से पैदा हुए हैं।
यह देश विविधताओं का देश है--जाति, धर्म, भाषा, रहन-सहन, खान-पान, नाक-नक्श तमाम दृष्टियों से वैविध्य है और इस वैविध्य को राष्ट्रीय ऐक्य-सूत्र तादात्म्यपूर्ण एकता में आबद्ध करता है, फलतः विविधता में एकता-'Unity in diversity '--की चरितार्थता सिद्ध होती है। किसी उद्यान में एक ही तरह और रंग के फूल हों, तो एकरसताजन्य औदास्य आभासित होता है। वही अगर नाना प्रकारों और रंगों के पुष्प हों, तो अद्भुत शोभा और सौन्दर्य से उद्यान जगमगा उठता है। उद्यान तो एक ही होता है ,जो एकता का विधायक होता है-- एक उद्यान के विविध रंगारंग फूल। क्या ही खूब कहा है उर्दू के अजीम शायर 'जौक 'ने--
"गुल हा ए रंगारंग से है जीनते चमन।
ऐ जौक इस जहाँ को है ज़ेब इक्तिलाफ से ।
(जीनत=सौन्दर्य, ज़ेब =शोभा, इक्तिलाफ =विविधता)
नफ्रत (घृणा)न केवल विघटनकारी तत्त्व है, प्रत्युत जिससे घृणा की जाती है, उससे प्रतिक्षिप्त होकर घृणा करनेवाले पर ही प्रबलतर प्रतिघात करती है। योगिप्रवर स्वामी ओमानन्द तीर्थ (पातञ्जल योग प्रदीप के टीकाकार) ने बड़ी ही सही विज्ञानसम्मत बात उद्धृत की है-----"Every bit of hatred that goes out of the heart of man comes back to him in full force, nothing can stop it and every impulse of life comes back to him. "
सच पूछिए तो, जिसके दिल में नफ्रत का जहर उबलता रहता है, उसका चेहरा भी विकृत दिखाई देता है,क्यों कि मन से शरीर अलग नहीं है, बल्कि शरीर मन का ही प्रसर है। अद्वैतवादी वेदान्त-दर्शन के अनुसार आत्मा एक ही है, जो माया से नाना नाम -रूपों में प्रपंचित होकर जगत्-रूप में विलसित है। सुतरां, अखिल विश्व एकात्म है। विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो में संपन्न सर्वधर्मसम्मेलन में ",My sisters and brothers of America "संबोधन का प्रयोग किया था, तो वेदान्त-दर्शन की यही ऐकात्म्य-परक चेतना मुखर थी।
धर्ममात्र का मूल तत्त्व एक ही है। इसी दृष्टि से कवीन्द्र रवीन्द्र ने कहा है-"धर्म एक वचन में होकर ही सत्य है, बहुवचन में होकर वह झूठा हो जाता है। " स्वामी विवेकानन्द ने "आत्मसाक्षात्कार " को ही यथार्थ धर्म माना है। भिन्न-भिन्न सभी धर्मों का पर्यवसान 'आत्मसाक्षात्कार 'में है। स्वामी विवेकानन्द के निम्नलिखित शब्द बार बार मनन करने योग्य हैं--
"Religion is realization;not talk ,nor doctrine, nor theories, however beautiful they may be. It is being and becoming, not hearing or acknowledging. It is the whole soul becoming changed into what it believes. That is religion(what Religion Is in the words of Vivekanand, edited by Vidyatmananda, p-42 )."
यही वह विराट् मानवीय चेतना है, जिसके आधार पर भिन्न भिन्न सभी धर्मों के बावजूद मानव-धर्म, विश्व-धर्म, की साकारता संभव है। यह स्वामी विवेकानन्द का विराट् मानवीय दृष्टिकोण है, जो अद्वैतवादी वेदान्त-दर्शन से प्रेरित-अनुप्राणित है।
अब अधिक उपबृंहण अनावश्यक है।
मैं उदार मानवीय चेतना का पोषक और जगदम्बा का विनम्र उपासक हूँ;उन्हीं जगदम्बा का, जिनके परम सिद्ध निष्णात भक्त (स्वामी विवेकानन्द के गुरु) श्री रामकृष्ण देव परमहंस थे।
भारतीय संस्कृति का मूल स्वर ऐकात्म्यनिष्ठ उदार मानवतावादी चेतना है, जो निम्नलिखित सुप्रसिद्ध महामन्त्र में सम्यक् अभिव्यक्त है---
"सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चिद् दु:खभाग् भवेत्। "
मैं अन्तरात्मा से कामना करता हूँ कि इसी महामन्त्र से हमारे महान् राष्ट्र का अभिषेक हो।
और अन्त में। फेसबुक के तथाकथित मित्रों से मेरा अनुरोध है कि होश में रहकर टिप्पणी किया करें। मैं कोई lay man नहीं हूँ। मैं Ex University Professor हूँ। मेरी अपनी प्रतिष्ठा है। मेरे अनेकों लेख और ग्रन्थ राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित हैं। यों मैं आत्मप्रचार और आत्मश्लाघा से विरक्त व्यक्ति हूँ। यहाँ वैवश्य से कुछ आत्मकथन करना पड़ गया।
मेरा यह आलेख विद्वानों को समर्पित है, अहमकों को नहीं। किन्तु, दु:खद है कि अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोगों में भी उलटी खोपड़ी वालों की कमी नहीं है।
अस्तु, मैं लोगों से वाक्संयम की अपेक्षा करता हूँ। "तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु "
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