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कितना भोला सा यह गाँव।।

कितना भोला सा यह गाँव।।

डॉ रामकृष्ण मिश्र
कितना भोला सा यह गाँव।।
बहुत उजाले में बदली सी
वन क्न्याएँ सब भोली सी
हँसी ठिठ़ोली करती जातीं
रूपा गढ़े चढ़े गोडाँव।।
हवा नहीं आई शहरों से
दूर- दूर सागर लहरों से।
जंगल जज्ञ शुरू होता है
ढोरों का परिचित ठहराँय।।
बिन सिंंगार अनोखा फैसन
जूडा नीम करंजी रोगन
केंदू पत्र लगे गौरव से
सीधे मन के भाव।।
अधरों पर काली मुस्काने
सब अपने जाने पहचाने
मुट्ठी तनी तीर धनु काँधे
किन्तु न असहज चाव।।
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