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लोकसभा के चुनाव परिणामों का निहितार्थ- प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

लोकसभा के चुनाव परिणामों का निहितार्थ - प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

लोकसभा के ताजा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को विजय प्राप्त हुई है। परंतु जैसी विजय की सारा देश अपेक्षा कर रहा था, उसकी तुलना में यह विजय फीकी दिख रही है। तो तरह-तरह के विश्लेषण सामने आ रहे हैं। परंतु इसे सही संदर्भ में देखकर भारतीय लोकमानस की संरचना और झुकाव को समझने की आवश्यकता है।
इस विजय को किसी भी रूप में हिन्दू समाज की पराजय की तरह नहीं देखा जा सकता और न देखा जाना चाहिये। अपितु तथ्यपूर्ण विश्लेषण आवश्यक है। पहली बात तो यह है कि न तो भारतीय जनता पार्टी ने और न ही किसी भी अन्य राष्ट्रीय पार्टी ने आज तक चुनावों में हिन्दुत्व को मुद्दा बनाया है। इसलिये इसमें हिन्दुत्व की जय-पराजय देखना या बताना निराधार है।
परंतु दूसरी ओर यह तथ्य है कि चुनाव परिणामों के विवरण विस्तार से प्राप्त हो गये हैं और यह स्पष्ट है कि सम्पूर्ण देश में मुस्लिम मतदाताओं ने भाजपा और मोदी जी के विरोध में एकतरफा वोट दिये हैं। निश्चय ही इसमें अपवाद भी हैं परंतु अपवादों से नियम पुष्ट होता है। ये चुनाव इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि मुसलमानों में अपने मजहब को लेकर उन्माद की सीमा तक उत्साह और संकल्प है और मोदी सरकार से मिली सारी सुविधाओं तथा संरक्षण के बाद भी अपने राजनैतिक भविष्य के लिये उन्हें भाजपा की पराजय आवश्यक लगती है और वे उसके लिये जो कर सकते हैं, करने को तैयार रहते हैं। मजहब के प्रति यह उत्साह सर्वोपरि है। यद्यपि मुसलमानों में हिन्दुओं से अधिक आपसी मतभेद और टकराव हैं तथा कर्मफल के सिद्धांत को नहीं मानने के कारण वहाँ नैतिकता का कोई आध्यात्मिक आग्रह नहीं है। जिसके कारण नैतिकता के कोई सार्वभौम मूल्य उनकी एकता के आधार नहीं हैं। केवल मजहबी जोश और जुनून ही चुनाव के समय उनकी एकता का आधार है। यद्यपि शेष समय उनमें आपसी फूट और टकराव हिन्दुओं से अधिक ही हैं, कम नहीं।
इसका अर्थ है कि मुस्लिम नेतृत्व ने मुसलमानों में मजहबी जोश जाग्रत रखने के लिये रणनैतिक रूप से मिलजुलकर काम किया है। भले ही इसका कारण यह हो कि मजहबी जोश सर्वोपरि होने पर मुस्लिम समाज के भीतर गरीबी और अमीरी, साधन-सम्पन्नता और विपन्नता के विकराल मतभेद ढके रहते हैं और अपने सम्पन्न नेतृत्व से उन्हें कोई ईर्ष्या नहीं होती। इसलिये आपस में गहरा टकराव होने पर भी मुस्लिम नेतृत्व इस विषय में एक अघोषित सर्वानुमति रखता है कि मुसलमानों में मजहबी जोश को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाये और उसे सर्वोपरि रखा जाये।
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि हिन्दुओं में ऐसा धर्मोत्साह क्यों नहीं है? इसमें राज्य और राजनीति की कोई भूमिका नहीं है। इसलिये इस प्रश्न की विवेचना करते समय यह कहकर बात को टाला नहीं जा सकता कि हमारे राज्यकर्ता और राजनेता हिन्दुओं को धर्म के लिये प्रेरित नहीं करते, इसलिये ऐसा है। मुसलमानों के पास कम से कम अंग्रेजों के समय और 1947 के बाद भी कहीं भी सीधा शासन नहीं रहा। उससे पहले भी साढे 300 से अधिक हिंदू राज्य थे। वहां मुसलमानों का शासन नहीं था। थोड़ी सी मुस्लिम रियासतें ही उनके कब्जे में थीं। परंतु मुसलमानों के नेतृत्व ने मजहब का आग्रह कभी नहीं छोड़ा। भले ही इसका कारण यह है कि मजहब से उनके नेतृत्व को ही लाभ था क्योंकि अधिकांश मुसलमान मजहब के कारण विश्व में बाकी सब बातें भूल कर नेतृत्व के पीछे-पीछे चलते हैं और उसके लिए सब कुछ दर किनार कर देते हैं। लेकिन वह एक अलग विषय है। मुख्य बात यह है कि मुसलमान के नेतृत्व ने मजहब के लिए लगातार व्यवस्थित काम किया। हिंदुओं का कोई भी नेतृत्व ऐसा नहीं है। लोकमान्य तिलक के बाद ऐसा कोई नेतृत्व सामने नहीं आया, जिसने हिंदुओं की धर्म भावनाओं को पोषित करने के लिए और तीव्र करने के लिए, उद्दीप्त करने के लिए, प्रज्वलित करने के लिए, जगमग करने के लिए व्यवस्थित काम किया हो। ऐसा कोई भी राजनीतिक नेतृत्व नहीं है और ऐसा कोई सांस्कृतिक संगठन भी नहीं है। धार्मिक संगठन भी नहीं है।
जो लोग हिंदुओं की विविधता और विभेद बताते हैं उन्हें कुछ भी नहीं पता। मुसलमान में हिंदुओं से अधिक विभेद है, विविधता है टकराब है, आपसी टकराव है लेकिन मजहब के मामले में वहां एकजुटता अनिवार्य है अन्यथा इसका उग्र विरोध होता है। अंग्रेजों ने जाने क्या पट्टी पढ़ा दी कि नवशिक्षित हिंदुओं को धर्म केविषय में उदार होने का शौक है जिसका अर्थ है कि धर्म की निंदा और अपमान तथा उपेक्षा और विरोध सहने का रोग हो गया है।
इसलिए हिंदुओं में धर्म का वैसा आवेग नहीं होने का कारण अभी की शिक्षा और अभी के सारे संगठन हैं और इस दृष्टि से वह हिंदू संगठन भी पूरी तरह फेल हुए हैं जो हिंदुओं के संगठन के लिए बने हुए हैं। सत्य यही है। परंतु एक दूसरा सत्य भी है कि राजनीति की इतनी प्रधानता हो गई है कि भाजपा के सत्ता में आने के बाद उससे जुड़ा कोई भी संगठन इस सत्य को सुनने को तैयार ही नहीं होगा और इसका विरोध करेगा तथा यह सब बोलने वालों की उपेक्षा करेगा। यह स्वाभाविक है।
अभी उपलब्ध पार्टियों में भारतीय जनता पार्टी सर्वात्तम है। हिंदुओं में इससे अच्छी पार्टी तो कोई नहीं है। मुसलमानों में मुसलमान के हित में काम करने वाली और ईसाइयों में ईसाइयों के हित में काम करने वाली इससे बेहतर कोई पार्टी नहीं। इसलिए पार्टी के रूप में भाजपा से शिकायत की कोई गुंजाइश नहीं है।
मुसलमान और ईसाइयों के धार्मिक तथा सांस्कृतिक संगठन है जो इस्लाम और ईसाइयत को जागृत प्रदीप्त और तीव्र बनाए रखने के लिए रात दिन काम कर रहे हैं। हिंदुओं के पास ऐसा एक भी धार्मिक या सांस्कृतिक संगठन नहीं है। अतः आप धार्मिक या सांस्कृतिक संगठन की कमी या इस विषय में हिंदुओं की असमर्थता के लिये राजनीतिक पार्टी पर बोझ डालकर यदि बचते हैं तो यह आपकी बहुत बड़ी कमी है। इसका सत्य से कोई संबंध नहीं। इस विषय में बीजेपी से असंतोष या बिक्षोभ का कोई कारण नहीं। विक्षोभ इस विषय में होना ही है तो सांस्कृतिक संगठनों और धार्मिक संगठनों से होना चाहिए। विगत 100 वर्षों में हिंदू धर्म के प्रति और संपूर्ण हिंदू समाज के प्रति प्रेम और लगाव तथा जागृति और उल्लास जागने का दायित्व जिन संस्थाओं और व्यक्तियों पर था उन्होंने यह कार्य करने के स्थान पर हिंदू की बात करके या कभी-कभी हिंदू धर्म की कुछ बात करके हिंदुओं के बीच अपना एक प्रभाव बनाने अथवा हिंदुओं के बीच अपना एक पार्टी या संप्रदाय खड़ा करने अथवा एक सीमित दायरे में ही काम करने में संतोष का अनुभव किया।
उन सबको संपूर्ण हिंदू समाज के प्रति बराबरी से प्रेम नहीं रहा अपितु अपने संस्थापक या अपने प्रमुख पदाधिकारी को कोई दार्शनिक या विचारक वगैरह बताने के यूरो ख्रीस्तीय चक्कर में उनके ही विचार के विस्तार में अधिक रुचि रही। जिससे वह एक संप्रदाय बनने की ओर ही अग्रसर होते गए हैं।
इस बीच एक नई घटना हुई। ब्रिटिश प्रभाव से और यूरोप की जानकारी के कारण वहाँ उभरते नेशन स्टेट और नेशनलिज्म की प्रेरणा से सबसे पहले बंगाल में ‘जातीय भावना’ बांग्ला शब्द का प्रयोग बढ़ा और फिर बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने विश्वविख्यात उपन्यास ‘आनंदमठ’ में अमरगीत ‘वंदे मातरम’ की रचना की। जगज्जननी दुर्गामाता के ही एक समरूप भारतमाता की अवधारणा उभर कर आई और राष्ट्र की बात होने लगी। ‘राष्ट्र’ वैदिक शब्द है और उसका व्यापक अर्थ है। नेशन यूरो-ईसाई शब्द है और उसका अर्थ है ‘किसी एक जनसमूह का क्षेत्र’। नेशन स्टेट अलग-अलग यूरोपीय जातियों के राज्य हैं - एंग्लो सेक्सन, पोल, हूण, गाल, स्लाव, मगयार, वंडाल, ड्रयूड, जूट, स्विस आदि के ही राज्य नेशन स्टेट के रूप में बढ़े हैं। भारत में अत्यंत प्राचीनकाल से धर्म और संस्कृति की अविच्छिन्न परंपरा और अखंड एकता के कारण बंगाल के बौद्धिकों ने समस्त हिन्दुओं को एक जाति ही कहा। बाद में इसके लिये राष्ट्र शब्द का प्रयोग होने लगा। परंतु 15 अगस्त 1947 के बाद राजनैतिक दलों ने धीरे-धीरे ‘राष्ट्र’ शब्द को वस्तुतः ‘राज्य’ तक सीमित कर दिया। उसमें से राष्ट्र का जो मूल आधार था - सनातन धर्म, उसको लुप्त कर दिया। फिर कांग्रेस ने राष्ट्र को मुख्यतः सनातन धर्म से रहित करने वाली नीतियाँ चलाईं और इसके लिये सनातन धर्म के अनुयायियों से भिन्न समुदायों को अल्पसंख्यक घोषित कर उन्हें विशेष संरक्षण और सुविधा-सहायता दी गई। इस प्रकार राज्य द्वारा सनातन धर्म का संरक्षण समाप्त कर दिया गया। यह करोड़ों वर्षों के भारतीय इतिहास में पहली बार हुआ। इसलिये सामान्य हिन्दू इनकी कल्पना भी नहीं कर पाये और कोई ऐसा करने का दुस्साहस कर सकता है, इस पर विश्वास भी नहीं कर पाये। परंतु फिर धीरे-धीरे कुशिक्षा के कारण सभी राजनैतिक दल इसी ढर्रे पर चलने लगे और इसको कोई बहुत बड़ा आदर्श तथा राष्ट्र का सर्वोपरि लक्ष्य ही बना डाला। इस प्रकार राष्ट्र की बातें धर्म के प्रति प्रेम और अनुराग घटाने और शिथिल करने के लिये होने लगीं और धर्म राजनीति के केन्द्र से हट गया। इस समय सम्पूर्ण विश्व में राजनीति के केन्द्र में मुस्लिम मजहब अथवा ईसाई रिलीजन ही था और वही राज्य का मूल प्रेरक मान्य था, उसी समय भारतीय राजनीति के केन्द्र से सनातन धर्म को बाहर कर दिया गया। इस तरह राज्य के संरक्षण और कुशिक्षा तथा संचार माध्यमों के प्रचार के कारण सनातन धर्म को कोई बाहरी या अनपेक्षित या विजातीय तत्व की तरह राष्ट्र भर में प्रचारित किया गया और ऐसी धर्महीनता को ही राष्ट्रवाद या राष्ट्रभक्ति बताया जाने लगा। धर्म का विलोप कर दिये जाने के कारण सभी कुलसमूह (जातियाँ) अपने-अपने राजनैतिक वर्चस्व के लिये धर्म की समस्त मर्यादा भुलाकर काम करने लगे। ऐसे में हिन्दू धर्म के प्रति उत्साह जगाने वाला परिवेश नहीं बचा। वह केवल एक भूमिगत गतिविधि बनकर रहा गई। सार्वजनिक रूप से सनातन धर्म का उत्कर्ष अपना कर्तव्य बताने वाले कोई संगठन और समूह राजनीति में तथा सार्वजनिक जीवन में नहीं रहे। हिन्दुओं पर मुसलमानों और ईसाइयों के लगातार भारी पड़ते जाने का कारण यही है।
यहाँ कुछ लोग कुशिक्षा और कुप्रचार से प्रभावित होने के कारण यह तर्क देने लगेंगे कि हिन्दुओं में विविध देवी-देवता और विविध उपासना पद्धतियाँ होने से एकता में अवरोध आता है। जबकि मुसलमान और ईसाई एकेश्वरवादी हैं। अतः वह उनकी एकता का आधार है। परंतु यह असत्य है और अज्ञान से भरा कथन है।
इस्लाम या ईसाईयत को एकेश्वरवादी कहना परम मूर्खता है और भीषण अज्ञान है और उनके प्रोपेगेंडा का शिकार होना है। क्योंकि वह लोग एकेश्वरवादी तो बिल्कुल भी नहीं है और उनकी अपनी भाषा में स्वयं के लिए एकेश्वरवाद जैसा कोई शब्द भी नहीं है। वह कभी स्वयं को एकेश्वरवादी नहीं कहते। मूल रूप से ‘मोनोथिइज्म’ ईसाइयों की अवधारणा है और वह अपनी ईसाइयत को मोनोथीइस्ट यानी एकपंथवादी कहते हैं। ‘मोनो’, ‘थी’, ‘इस्ट’। मोनो यानी एकमात्र। थी यानी पंथ। मोनोथीईस्ट यानी एकपंथवादी। थी का अर्थ ईश्वर नहीं होता। गॉड के पास जाने का रास्ता होता है। अतः इस्लाम और ईसाइयत एकपंथवादी है अथवा एकमात्र देववादी हैं अथवा ममेश्वरवादी हैं। यह बात 40 वर्षों से तो मैं लिख ही रहा हूँ और पुस्तकों में भी है। इस शब्द का पुस्तकों में भरपूर प्रयोग मैंने किया है।
मुसलमानों और ईसाइयों का नेतृत्व भारत में हिंदुओं को धोखा देने के लिए अपने बारे में एकेश्वरवाद को माननेवाले होने जैसा भ्रम फैलाता रहा और फैलने में सहायक रहा और हिंदुओं में जो मंदबुद्धि हैं और जो धन आदि के लोभ में उनके चेले बन गए अथवा जो कुछ भी नहीं जानते इस विषय में, वे ही उनको एकेश्वरवादी कहते हैं।
एकेश्वरवादी तो केवल हिंदू होते हैं जो जानते हैं कि जड़ चेतन सब में एक ही परमात्मा हैं। हिंदुओं के सिवाय इस विश्व में कोई एकेश्वरवादी नहीं है। परम सत्ता एक। देव ज्योतियाँ अनेक। देवता चिन्मय ज्योतिपुंज हैं। एक ही परम सत्ता के। अगर इस्लाम और ईसाइयत एकेश्वरवादी होते तो संसार कितना सुखी होता। कहीं कोई झगड़ा ही नहीं होता। क्योंकि तब वे कहते - ‘भाई, मैं जिसे अल्लाह कहता हूं तुम उसे गॉड कहते हो, हिंदू उसे राम या कृष्ण या विष्णु शिव या ब्रह्म कहते हैं।’ तब इस प्रश्न पर कभी कोई टकराव हो ही नहीं सकता।
झगड़े की जड़ यह है कि तुम्हारा अल्लाह या तुम्हारा गॉड झूठा और केवल मेरा आराध्य सत्य है। मेरे द्वारा पूजित और प्रतिपादित ईश्वर ही ईश्वर है। तुम्हारे द्वारा प्रतिपादित और पूजित देवसत्ता देवता भी नहीं है। सारे झगड़े की जड़ यह है। यह सदा रहेगी क्योंकि वे केवल बौध्दिक वाद नहीं करते। मार काट भी करते हैं। तो जो हमारे देवताओं और मंदिरों को नष्ट करें उसे नष्ट करना हमारा धर्म है। उसका समूल नाश करने का पुरुषार्थ हमारा धर्म है। यह बात कहने वाला कोई भी समूह संस्कृति और धर्म के क्षेत्र में भारत में नहीं है। इसमें वस्तुतः कोई मारकाट नहीं करनी है क्योंकि वर्तमान में लोकतांत्रिक राज्य में कोई मंदिर नष्ट करने को स्वतंत्र नहीं है और कोई देवताओं की निंदा करने का विधिक रूप से अधिकारी नहीं है। अतः केवल अपना पक्ष रखना है जिससे स्वस्थ संवाद हो सके और सहजीवन के आधारों पर समझौता हो सके। परंतु इतना कहने वाला भी कोई संगठन हिन्दुओं में नहीं है। ऐसी स्थिति में हिन्दुओं में धर्म के प्रति उत्साह कैसे जगे? कौन जगायेगा? उस पर सर्वानुमति कैसे बनेगी?
इस स्थिति में अपने-अपने कुलसमूहों, जातियों और संगठनों के लिये सत्ता की छीना-झपटी ही प्रधान हो जायेगी। वही हुआ है और हो रहा है। अतः चुनावों को भारत राष्ट्र में व्याप्त आध्यात्मिक शून्यता या धर्म के प्रति उत्साह के विषय में मौन और राष्ट्र के नाम पर भाषण और नारे देते हुये उसे राज्य का पर्याय बना देने के परिणाम के रूप में देखना चाहिये। क्योंकि सम्पूर्ण विश्व में नेशन के कुल दो ही आधार हैं -(1) धर्म या रेलिजन या मजहब और (2) जाति। इसलिये राष्ट्र के आधार से धर्म को हटा देने पर जाति के लिये सत्ता की छीना-झपटी ही बच रहती है और बच रहेगी। इसमें हिन्दू धर्म की जय-पराजय देखना मूर्खता है।


- प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
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