पर्यावरण
सब चिल्लाते पर्यावरण बचाओ ,पर्यावरण बचाने वाला है कौन ?
कटते रहे हैं नित्य वृक्ष ये लाखों ,
वृक्ष काटने वाला ही तो है मौन ।।
एक वृक्ष यदि हम हैं यह लगाते ,
कट रहे हैं नित्य ही वृक्ष हजार ।
अपनी गला तो स्वयं हम घोंटते ,
मिटा रहे हम जीवों का बाजार ।।
पर्यावरण रह गया पर्याय बनकर ,
जल जीवन और हरियाली का ।
वृक्षों का ही हम कर्तन हैं करते ,
स्वयं मौसम बनाते बदहाली का।।
वृक्ष कटे शीतल छाया न मिले ,
गर्मी भी पड़े तब बहुत अथाह ।
धूप ताप से यह तन भी जलेगा ,
बचाव का नहीं मिले कोई राह ।।
सारे जीव ये जल जलकर मरेंगे ,
जल जाऍंगे धरा के सारे ही जल ।
उर्वरा शक्ति जाएगी जमीनों की ,
रेगिस्तान होगा उपजाऊ स्थल ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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