शास्त्रों में सगोत्र (एक ही गोत्र) में विवाह करना वर्जित क्यों ?
आनंद हठिला पादरली
हमारी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार विवाह अपने कुल में नहीं, बल्कि कुल के बाहर होना चाहिए। एक गोत्र में (सगोत्री) विवाह न हो सके, इसीलिए विवाह से पहले गोत्र पूछने की प्रथा आज भी प्रचलित है। शास्त्रों में अपने कुल में विवाह करना अधर्म, निंदित और महापाप बताया गया है इसलिए माता की 5 या पिता की 7 पीढ़ियों को छोड़कर अपनी ही जाति की दूसरे गोत्र की कन्या के साथ विवाह करके शास्त्र पदानुसार संतान पैदा करनी चाहिए। क्योंकि सगोत्र में विवाह करने पर पति-पत्नी में रक्त की अति समान जातीयता होने से संतान का उचित विकास नहीं होता। यही कारण है कि अनादि काल से पशु-पक्षियों में कोई विकास नहीं हुआ है, वे ज्यों-के त्यों चले आ रहे हैं। सगोत्र विवाह का निषेध मनु महाराज ने भी किया है
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने ॥
अर्थात् जो माता की छह पीढ़ी में न हो तथा पिता के गोत्र में न हो ऐसी कन्या द्विजातियों में विवाह के लिए प्रशस्त है।
चिकित्सा-शास्त्रियों द्वारा किए गए अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि सगोत्री यानी निकट संबंधियों के बीच विवाह करने से उत्पन्न संतानों में आनुवंशिक दोष अधिक होते हैं। ऐसे दंपतियों में प्राथमिक बंध्यता, संतानों में जन्मजात विकलांगता और मानसिक जड़ता जैसे दोषों की दर बहुत अधिक है। साथ ही मृत शिशुओं का जन्म, गर्भपात एवं गर्भकाल में या जन्म के बाद शिशुओं की मृत्यु जैसे मामले भी अधिक देखने में आए हैं। इसके अलावा रक्त संबंधियों में विवाह पर रोक लगाकर जन्मजात हृदय विकारों और जुड़वां बच्चों के जन्म में कमी लाई जा सकती है। उल्लेखनीय है कि भारत के देहाती क्षेत्रों में 100 प्रसव के पीछे 18 और शहरी क्षेत्रों में 11 जुड़वां बच्चे पैदा होने का अनुपात मिला है।
हाल ही में हैदराबाद में हुए एक नए अध्ययन से पता चला है कि खून के रिश्ते वाले लोगों की आपस में शादी हो जाने पर उनका होने वाला बच्चा आंखों से संबंधित बीमारियों का शिकार हो सकता है। वह न केवल कमजोर दृष्टि, बल्कि अंधेपन का शिकार भी हो सकता है। यहां के सरोजनी देवी आई हॉस्पिटल में किए गए अध्ययन से यह तथ्य भी प्रकाश में आया है कि आपसी रिश्तेदारी में शादी करने वाले जोड़ों से जन्मे लगभग 200 बच्चों में से एक बच्चा दृष्टि की कमजोरी का शिकार होता है। उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत में नजदीकी रिश्तेदारों में शादी हो जाना एक आम बात है।
पुत्री को अपने पिता का गोत्र, क्यों नही प्राप्त होता?
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वैज्ञानिक दृष्टिकोण से
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हम आप सब जानते हैं कि स्त्री में गुणसूत्र xx और पुरुष में xy गुणसूत्र होते हैं ।
इनकी सन्तति में माना कि पुत्र हुआ (xy गुणसूत्र) अर्थात इस पुत्र में y गुणसूत्र पिता से ही आया यह तो निश्चित ही है क्योंकि माता में तो y गुणसूत्र होता ही नही है !
और यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र) यानी यह गुण सूत्र पुत्री में माता व् पिता दोनों से आते हैं ।
1. xx गुणसूत्र
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xx गुणसूत्र अर्थात पुत्री , अस्तु xx गुणसूत्र के जोड़े में एक x गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा x गुणसूत्र माता से आता है । तथा इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है जिसे Crossover कहा जाता है ।
2. xy गुणसूत्र
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xy गुणसूत्र अर्थात पुत्र , यानी पुत्र में y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्योंकि माता में y गुणसूत्र है ही नही । और दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारन पूर्ण Crossover नही होता केवल 5 % तक ही होता है । और 95 % y गुणसूत्र ज्यों का त्यों (intact) ही रहता है ।
तो महत्त्वपूर्ण y गुणसूत्र हुआ । क्योंकि y गुणसूत्र के विषय में हमें निश्चित है कि यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है ।
बस इसी y गुणसूत्र का पता लगाना ही गोत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है जो हजारों / लाखों वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था ।
वैदिक गोत्र प्रणाली और y गुणसूत्र :
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अब तक हम यह समझ चुके है कि वैदिक गोत्र प्रणाली y गुणसूत्र पर आधारित है अथवा y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है ।
उदहारण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है तो उस व्यक्ति में विद्यमान y गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस y गुणसूत्र के मूल हैं ।
चूँकि y गुणसूत्र स्त्रियों में नही होता यही कारण है कि विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है।
वैदिक / हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारण यह है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष व स्त्री भाई बहन कहलाएंगे क्योंकि उनका प्रथम पूर्वज एक ही है ।
परन्तु ये थोड़ी अजीब बात नही कि जिन स्त्री व पुरुष ने एक दुसरे को कभी देखा तक नही और दोनों अलग अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे , तो वे भाई बहन हो गये ?
इसका मुख्य कारण एक ही गोत्र होने के कारण गुणसूत्रों में समानता का भी है । आज के आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनकी सन्तति आनुवंशिक विकारों के साथ उत्पन्न होगी।
ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा , पसंद , व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता । ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है । विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगोत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात मानसिक विकलांगता , अपंगता , गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं । शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगोत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था ।
इस गोत्र का संवहन यानी उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित न कर सके , इसलिये विवाह से पहले कन्यादान कराया जाता है और गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गोत्र में उस कन्या को स्थान देता है , यही कारण था कि उस समय विधवा विवाह भी स्वीकार्य नहीं था , क्योंकि , कुल गोत्र प्रदान करने वाला पति तो मृत्यु को प्राप्त कर चुका है ।
इसीलिये , कुंडली मिलान के समय वैधव्य पर खास ध्यान दिया जाता और मांगलिक कन्या होने पर ज्यादा सावधानी बरती जाती है ।
आत्मज या आत्मजा का सन्धिविच्छेद तो कीजिये ।
आत्म + ज अथवा आत्म + जा
आत्म = मैं , ज या जा = जन्मा या जन्मी , यानी मैं ही जन्मा या जन्मी हूँ ।
यदि पुत्र है तो 95% पिता और 5% माता का सम्मिलन है । यदि पुत्री है तो 50% पिता और 50% माता का सम्मिलन है । फिर यदि पुत्री की पुत्री हुई तो वह डीएनए 50% का 50% रह जायेगा , फिर यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का 50% डीएनए रह जायेगा , इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री जन्म में यह प्रतिशत घटकर 1% रह जायेगा ।
अर्थात , एक पति-पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुनः पुनः जन्म लेता रहता है , और यही है सात जन्मों का साथ ।
लेकिन , जब पुत्र होता है तो पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95% गुणों को अनुवांशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5% ( जो कि किन्हीं परिस्थितियों में एक % से कम भी हो सकता है ) डीएनए ग्रहण करता है , और यही क्रम अनवरत चलता रहता है , जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेते रहते हैं , अर्थात यह जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है ।
इसीलिये , अपने ही अंश को पित्तर जन्म जन्मान्तरों तक आशीर्वाद देते रहते हैं और हम भी अमूर्त रूप से उनके प्रति श्रध्येय भाव रखते हुए आशीर्वाद ग्रहण करते रहते हैं , और यही सोच हमें जन्मों तक स्वार्थी होने से बचाती है , और सन्तानों की उन्नति के लिये समर्पित होने का सम्बल देती है ।
एक बात और , माता पिता यदि कन्यादान करते हैं , तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कन्या को कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं , बल्कि इस दान का विधान इस निमित किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिये और उस कुल की कुलधात्री बनने के लिये , उसे गोत्र मुक्त होना चाहिये । डीएनए मुक्त तो हो नहीं सकती क्योंकि भौतिक शरीर में वे डीएनए रहेंगे ही , इसलिये मायका अर्थात माता का रिश्ता बना रहता है , गोत्र यानी पिता के गोत्र का त्याग किया जाता है । तभी वह भावी वर को यह वचन दे पाती है कि उसके कुल की मर्यादा का पालन करेगी यानी उसके गोत्र और डीएनए को दूषित नहीं होने देगी , वर्णसंकर नहीं करेगी , क्योंकि कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिये रज का रजदान करती है और मातृत्व को प्राप्त करती है । यही कारण है कि प्रत्येक विवाहित स्त्री माता समान पूज्यनीय हो जाती है ।
यह रजदान भी कन्यादान की ही तरह कोटि यज्ञों के समतुल्य उत्तम दान माना गया है जो एक पत्नी द्वारा पति को दान किया जाता है ।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अलावा यह संस्कारगत शुचिता किसी अन्य सभ्यता में दृश्य ही नहीं है।
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