किसे देखा घोर निद्रा में सोया ,
सनातन पहले ही जग चुका है ।भूल से भी उसे तू छेड़ना नहीं ,
सनातन क्रोध यह तज चुका है ।।
तू समझा गहरी निद्रा में सोया ,
यह महज तुम्हारी एक भूल है ।
इस रास्ते कभी आना नहीं तुम ,
पग पग पर बिछा हुआ शूल है ।।
राणा चौहान नहीं तो क्या हुआ ,
रग रग खौलता उनका ये खून है ।
अकबर को भी धूल चटानेवाला ,
जन जन में सवार वही जुनून है ।।
सर्प वही तो आज भी है विषधर ,
किसी को जानबूझ छेड़ता नहीं ।
जान बूझकर छेड़ा है किसी ने ,
विषधर भी उसे है छोड़ता नहीं ।।
सावधान रे सनातनियों के अरि ,
किसे तू आज ललकार रहा है ।
आकर देख ले तू मैदान ए जंग ,
सनातन तुझे अब पुकार रहा है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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