नारी की पीड़ा सब कहें, है व्यथित जग में बहुत,
निभा रही किरदार अनेकों, है व्यथित जग में बहुत।माँ बहन पत्नी बेटी, कभी सास बहू के किरदार में,
त्रस्त रहती ससुराल में वह, है व्यथित जग में बहुत।
हाल कुछ कम नही यहाँ, पुरूषों का भी,
कोमल हृदय मगर, पत्थर होना पड़ता है।
घुटता है भीतर ही भीतर, देख पीड़ा सबकी,
कमजोर न कह दे कोई, आँसू छिपाना पड़ता है।
नहीं बाँट सकता दुख दर्द, खुद का वह किसी से,
दर्द खुद ही पीना पड़ता, और मुस्कुराना पड़ता है।
हैं कितने किरदार आदमी, कभी आदमी को देखना,
घर की खुशी के वास्ते, तपती धूप चलना पड़ता है।
हों जरूरतें पूरी घर की, पत्नी बच्चों माँ बाप की,
खुद कमीज का कालर, रूमाल से छिपाना पड़ता है।
भूख में पानी पिए, खाता नहीं बाजार में कुछ,
माँ बाप की दवाई, पत्नी की साड़ी लेना पड़ता है।
है बहुत दर्द और पीड़ा, क्या कहें किससे कहें हम,
दर्द जब हद से बढ़े, तकिया ही भीगोना पड़ता है।
शुष्क नयन से आँसू टप टप, नहीं दिखाई देते,
अपनों की रुसवाई को भी, ख़ामोश सहना पड़ता है।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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