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कल्पनाओं का सागर

कल्पनाओं का सागर

आज कल बड़े उदास से
तुम लग रहे हो।
खुद पर और अपनों पर
क्यों सितम ढा रहे हो।
पूणिमा के चाँद को क्यों
अमावस्या का बना रहे हो।
और अपनी खूब सूरती को
क्यों छुपा रहे हो।।


गीतों के तुम भाव हो
संगीत के तुम स्वर हो।
हुस्न की तुम मालिका हो
मोहब्बत की पहचान हो।
दिलों की तुम रानी हो
लेखकों की कल्पना हो।
कुल मिलकर कहें तो
दिलों में तुम बसती हो।।


हुस्न ए महफ़िल जब जमती हैं
तेरी अदाओं की बातें होती है।
भूलकर भी कोई शायार तुम्हें
भूल नही सकता है।
क्योंकि तेरा नाम लेकर ही
रातें बहुत रंगीन होती है।
इसलिए तो सबकी नजरें
तुम पर टिकी होती हैं।।


क्यों खुदसे और अपनों से
नजरे चुरा रहे हो।
अपनी खूब सूरती को
क्यों छुपा रहे हो।
माना की तुम किसी और
की अमानत हो।
पर देखने वालों के लिए
तो कयामत हो।।


तेरी खूब सूरती का
उसे एहसास नही है।
जिसे ये एहसास था
वो तुमसे दूर है।
पर फिर भी तेरे दिलके
वो बहुत करीब है।
इसलिए तन्हाईयों में वो
साथ तेरे होता है।।


जय जिनेंद्र

संजय जैन " बीना" मुंबई
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