कुंठित मन की पीर, कोई न हर पायेगा,
ग़ैरों की ख़ुशियों से, व्यथित हो जायेगा।हक मार कर दूजों का, जो प्रसन्न रहता,
कर्तव्य की बात, नज़र नहीं वह आयेगा।
नालायक और निकम्मे, आगे बढ़ते,
आरक्षण की बैशाखी से, आगे बढ़ते।
हक मार प्रतिभाओं का, योग्य बताते,
संविधान झुठला कर, वो आगे बढ़ते।
संविधान में दस वर्ष आरक्षण बतलाया,
निज स्वार्थ बार बार संविधान झुठलाया।
आरक्षण में आरक्षण का खेल चल रहा,
दबे कुचले बचे हुए को आरक्षण ठुकराया।
जिसको मिली मलाई, वह ही हक़दार रहेगा,
जिसके बच्चे बढ़ गये, वह ही आगे भी बढ़ेगा।
दलितों में दलित, वंचितों में वंचित नया वर्ग,
अब वंचितों में जो वंचित, वह वंचित ही रहेगा।
आरक्षण की मलाई खा, जो आगे बढ़ गये,
सरकारी नौकरियाँ पाकर, स्वर्ण बन गये।
स्वर्णों को दिन रात, पानी पी कोसने वाले,
अपनी ही जाति बिरादरी में, अगडे बन गये।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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