सफलता की कुंजी

सफलता की कुंजी

कहा जाता है कि मन से किया गया परिश्रम या शिष्ट मधुर व्यवहार ही सफलता की कुंजी है , भले ही उस परिश्रम या व्यवहार जिस मार्ग का हो । परिश्रम तो दोनों में ही होते हैं , व्यवहार भी दोनों में ही होते हैं । कहीं कहीं तो परिश्रम तो वही रहता है किंतु व्यवहार बदल देने पड़ते हैं । जैसे डकैती करने जाऍं और प्रेम से बोलें कि जो कुछ है , निकाल कर हमें दे दो , तो मिलेगा भी कुछ नहीं , बदन का दर्द अलग दूर होगा और हवालात का सैर तो ऊपर से बोनस होगा ।
हर मानव हवालात के सैर से बचना चाहता है , किंतु अच्छी आय अर्जन करने के लिए हर तरह से रिश्वत तो देनी ही पड़ती है । भले ही उसके नाम बदल जाते हैं और कहीं विपक्ष तगड़ा हुआ तो वह भी नहीं हो पाता है । परिश्रम के बल पर यदि यथोचित अर्जन करते हैं तो कर के रूप में देना पड़ता है , उसमें भी यदि बचाना चाहते हैं तो रिश्वत देना पड़ता है और यदि दोनों ही नहीं , तो हवालात का सैर करना पड़ता है । यदि कर या रिश्वत देते रहते हैं तो हम खुशहाल रहते हैं ।
किंतु आजकल यत्र तत्र ई डी , इंटेलीजेंस की छापेमारी हो रही है , उन सारे कालेधन को जब्त किया जा रहा है । क्या इसमें परिश्रम नहीं किया गया होगा या मन से परिश्रम नहीं किया गया होगा ? आखिर यह धन भी तो सफलता की कुंजी ही है , जो कैसे कैसे सुव्यवस्थित ढंग से संग्रह किया गया होगा और सुव्यवस्थित ढंग से ही उसे कहीं संचय किया गया होगा ।
जिनके यहाॅं छापेमारी करके लाखों करोड़ों रुपए जब्त किए गए , क्या कभी किसी को रोते हुए देखा है ? छापेमारी के पूर्व भी अपने उस धन पर गर्व करते हुए या खुश होते हुए किसी को देखा है , शायद नहीं । क्यों ? इसलिए कि वह ईमान का धन नहीं है ।
दोनों में यही फर्क होता है । ईमान का धन कर देकर भी खुशहाल होता है । उसकी हॅंसी खुशी में अंतरंगता दिखाई देगी , किंतु अनैतिकता पूर्वक संचय धन में न खुलकर खुशी ही होती है और न ही वह धन जाने पर नहीं खुलकर गम ही कर पाते हैं । समयानुसार दोनों में जो भी हो , वह अंतर्निहित ही होता है , मुखारविंद पर चमक या मनहूसी नहीं देता ।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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