सागर की गहराई कितनी, कोई जान सका ना,
छिपे हुये हैं कितने मोती, कोई जान सका ना।झरझर झरते मेरे आँसू, यह तो देख रहे सब,
दर्द छिपा कहाँ पर कितना, कोई जान सका ना।
मुझसे मेरी व्यथा पूछते, मेरे घर के अपने,
क्यों जार जार मैं रोया, कोई जान सका ना।
किसको अपनी पीर बताऊँ, सबके अपने हित हैं,
शुष्क नयन भीतर घट रोता, कोई जान सका ना।
मेरी पीडा मेरी अपनी, किसको कैसे समझाऊँ,
सुख की चाहत डोल रहा जो, कोई जान सका ना।
लगता जैसे बिखर रहा हूँ, अब तो रेत कणों सा,
क्यों तट बैठा प्यासा कीर्ति, कोई जान सका ना।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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