पर्यावरण दिवस पर विशेष

पर्यावरण दिवस पर विशेष

भारत एक ऐसा सांस्कृतिक देश है जहाँ विज्ञान संस्कृति में ,संस्कार में रच- बसकर जीवन में चलता रहता है। जिसे आज वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं में बहुत प्रयास करके सिद्ध करते हैं,वहीं हमारे ऋषियों ने जंगल में वनस्पतियों का हिलना डोलना देखकर पर्यावरण की अनिवार्यता सिद्ध कर दी थी ।वे जानते थे कि आने वाले समय में यह एक समस्या हो सकती है ;यह धरती को कंपाने वाली शक्ति बन सकती है वर्फीले पर्वतों के पिघलने से नदियां उफान मैं आ सकती है और जन- जीवन को तबाह कर सकती हैं ।इसलिए पर्यावरण की रक्षा हेतु धर्म में, संस्कृति में, संस्कार में कई प्रयोग उन्होने डाले । ऋषियों ने ऐसे त्योहारों की एक श्रृंखला दी है । इसे भारतीय शुद्धता से ,पवित्रता से और मनोवैज्ञानिकता के आधार पर अपनाकर पर्यावरण के क्षेत्र में निर्भय एवं निश्चिन्त हुआ करते थे।
आज पर्यावरण दिवस के रूप में विश्व एक पर्व मना रहा है एक त्योहार मना रहा है ।इसलिए आज पर्यावरण को समझने का अवसर है।इस पर्यावरण दिवस पर हम अपने ॠषि- वैज्ञानिकों को, शोधकर्ताओं को श्रद्धांजलि अर्पित करें । यही तो कारण रहा कि हमारा देश विश्वगुरु रहा है।
भारतीय परंपरा के अनुसार आज पर्यावरण दिवस है ।वैसे तो अपने यहाँ वर्ष में तीन बार पर्यावरण दिवस मनाने का प्रावधान है ।जीव जीवन जन जंगल से सम्बन्धित यह पूर्व से चली आ रही परंपरा आज मनुष्य के जीवन का आवश्यक अंग बनी हुई है ।वट सावित्री व्रत -वट वृक्ष की पूजा, सोमवती अमावस्या -पीपल वृक्ष की पूजा ,अक्षय नवमी -आंवले के वृक्ष की पूजा और भी इसी तरह इसके अंग हें। जिस दिन हम वन -वनालियों की पूजाकरते हैं ,उसी दिन उसी रूप में हम पर्यावरण दिवस मनाते रहे हैं ।ज्येष्ठ अमावस्या के दिन होने वाले वटवृक्ष की पूजा मुख्य रूप से वैदिक पर्यावरण दिवस है ।
वैसे 5 जून को मनाया जाने वाला पर्यावरण दिवस के पीछे कोई संवैधानिक आधार नहीं है ।उक्त तिथि को पेंड़-पौधे के संरक्षण से सम्बन्धित निर्णय लिई गए थे इसलिए 5जून पर्यावरन दिवस हो गया ।यह न्यू वर्ल्ड ऑर्डर के एक टूल के सिबा कुछ नहीं है और ॑तू मान या न मान मैं तेरा मेहमान ॑को चरितार्थ करता है । इसलिए बुद्धिमानों के लिए भारतीय पर्यावरन दिवस ही मान्य होना चाहिए ।
हमारे यहां जब देवी देवताओं की कल्पना नहीं की गई थी ,किसी अवतार की पूजा नहीं होती थी ,उस समय भी
सूर्य ,पर्वत, वायु एवं वनस्पतियों की पूजा होती थी ।वनस्पतियों के गुणों को हमारे ऋषियों ने समझा है, देखा है, परखा है और फिर जनकल्याण हित में उसे लोगों के लिए आवश्यक रूप से जारी किया है ।
स्कंद पुराण में पीपल वृक्ष की वंदना की गई है -
मूले ब्रह्मा त्वचा विष्णु शाखायां महेश्वरः।
पत्रे- पत्रे सर्व देवानां बृक्षराजः नमस्तुते ॥
ब्रतराज सिंधु में अश्वत्थ वृक्ष की प्रार्थना की गई है -
अस्वत्थ सुभहाभाग सुभग प्रियदर्शन ।
इष्टकामांश्च मे देहि शत्रुभयस्तु पराभव ॥
आयु प्रजांधनधान्यंसौभाग्यं सर्व संपदं ।
देहि देहि महा वृक्ष त्वामहम शरणंगत ॥
अस्वत्थ स्तोत्र में अस्वस्थ की पूजा करते हुए कहा गया है -" अश्वत्थ पूजितो यत्र पूजितासर्व देवता" ।
स्कंद पुराण में आगे महर्षि शौनक कहते हैं -मूलतः ब्रह्म रूपाय मध्यतो विष्णु रूपिनः।
अग्रतः शिव रुपाय अश्वत्थाय नमो नमः ॥
इसीलिए भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाते हुए उपदेश देने के क्रम में कहा -अर्जुन तू मुझे नहीं समझेगा। तुम वनस्पतियों को समझता है, इसलिए कि तुम वनस्पतियों के बीच पड़ा है ,बढ़ा है ,खेला है ।तू वनस्पतियों को ही समझ सकता है तो समझो ,उन वनस्पतियों में मैं अस्वस्थ हूं ।
-अश्वत्थ सर्ब बृक्षानाम् ।
गीता ।
बट सावित्री पूजा में वट वृक्ष की पूजा होती है ।लोग समझते थे वृक्ष रहेंगे तो हमारा जीवन रहेगा, हमारा परिवार रहेगा ।वृक्ष नहीं रहेंगे तो हमारा परिवार नहीं रह पाएगा यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है ।
एक बर (बनियान ट्री)लगभग 230 से 240 लीटर ऑक्सीजन प्रतिदिन निर्गत करता है । एक पुराना पेड़ नए पेड़ की अपेक्षा अधिक ऑक्सीजन देता है ।लगभग 22 घंटे ऑक्सीजन निर्गत करने वाले में पीपल ,बरगद ,तुलसी ,नीम और बांस अग्रणी है ।पुराने वृक्ष 230 से 240 लीटर ऑक्सीजन देते हैं और 250 से 270 लीटर बेन्जीन,फार्मल्टहाइड,ट्राइक्लोराइड आदि अवशोसित करते हैं ।कोई नया पेंड़ 10 से 15 लीटर ही ऑक्सीजन दे पाता है और 20 से 22 लीटर ही बेन्जीन,फार्मल्टहाइड,ट्राइक्लोराइड आदि अवशोसित कर पाता है ।इसलिए पुराने पेड़ की कीमत ज्यादा है ।यानी एक पेड़ पीपल ,बरगद, तुलसी, नीम ,बांस का कटता है तो उसके बदले 25 पेड़ लगाने की आवश्यकता होगी ,तभी संतुलन बना रह सकता है ।
अभी नासा के द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार सबसे हानिकर रसायनों आदि से अधिक डिटॉक्सीनेट करने वाला पौधा बांस है जो 1 वर्ष में 70 टन ऑक्सीजन देता है और 80 टन कार्बन डाइऑक्साइड ,कार्बन मोनोऑक्साइड आदि को शोसित करता है ।इन्हीं गुणों के कारण बांस को जलाया नहीं जाता । अंतिम संस्कार के समय भी बांस की रंथी पर मृत शरीर को ले जाया जाता है । इसमें बांस आवश्यक माना जाता है । लेकिन वहां जाकर चिता की अग्नि से बांस को अलग रखा जाता है ,बांस जलाया नहीं जाता ।तभी तो हमारे लोक गीतों में गाया जाता है-
कांचहि बांस के रे बहंगिया ,बंहगी लचकत जाए
-छठगीत।
कुछ दिन पूर्व करोना काल में जब मैदानी क्षेत्र में ऑक्सीजन की किल्लत हुई थी तो उसी कोरोना काल में हमने आदिवासियों को हंसते हुए देखा था ।
उसी समय पर्यावरण और पेड़ -पौधों की महत्ता समझ में आई थी ।
महर्षि व्यास लिखते हैं -महाभारत का कारण भी यह पर्यावरण ही है ।दुर्योधन को रहने- खेलने ,आवास -प्रवास के लिए निर्जीव भवन मिले, निर्जीव खिलौने मिले , लेकिन पांडवों को आवास -प्रवास,खर- खिलौने ,चित-चिंतन सबके सहयात्री बन- बनाली ही रहे ,जीवित पौधे रहे ,हंसते हुए पौधे रहे ,बढ़ते हुए पौधे रहे ।वृक्षों की छाया का आनंद उनके जीवन में भरपृर मिला ।उसे भवन की मृत -आत्मा की करुण पुकार सुनने को नहीं मिली । इसीलिए उन्हें जीवन भर अहिंसा- दृश्य बृति हो गई ,हिंसा से अपने को अलग रखना चाहते थे ।
अभी नासा के प्रयोग- उद्योग से कुछ पौधों का महत्व बढ़ाया गया है जो जीवन के लिए उपयोगी है ।जैसे मनी प्लांट ,एलोवेरा ,गरबेरा ,एरिका पाम ,तुलसी, पुदीना आदि ।ये पौधे फॉर्मल्डिहाइड, बेंजीन ,जाइलिन ,टालुइन, ट्राईक्लोरोइथिलिन शोषित कर वातावरन को डीटाक्सिनेट करते हैं और शुद्ध प्राणवायु देते हैं ।इन्हें घर में भी लगाया जा सकता है ।कुछ पौधे ऐसे हैं जिन्हे हम घर के अन्दर या अपने घरेलू वाग में भी लगा कर गौरवान्वित हो सकते हैं । यह है हमारा पर्याबरन दिवस जिस पर हम जय जगत का उद्घोस कर सकेंगे ।
डॉ सच्चिदानन्द प्रेमी
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