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कहाॅं है कल

 

कहाॅं है कल

कहाॅं है कल किसी ने देखा है ,
कहीं कभी कोई इसे पाया है ?
कल का तो हुआ नहीं दर्शन ,
कल को कब कोई अपनाया है?
कल तो सुनने में है आनेवाला ,
आते आते ही वह भाग गया ।
भाग्यशाली मानव वही होता ,
आज सूर्योदय होते जाग गया ।।
कल तो चुपके से ही आता है ,
चुपके से ही कल भाग जाता है ।
चुपके से ही वह हुलिया लेकर ,
वह इतिहास सबका बनाता है ।।
आज में ही कार्य योजना बनाते ,
आज में ही कार्य करते आरंभ ।
आज में ही कार्य का निष्पादन ,
आज ही बनता हमारा है खंभ ।।
कल तो रहता कल ही बनकर ,
कल नहीं बन पाता ये आज है ।
कल के बल पर जीवन अधूरा ,
आज ही तो जीवन का साज है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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