कवि तो होते पागल

कवि तो होते पागल

कवि तो होते हैं पागल ,
कवि तो होते हैं दीवाना ।
कब कहाॅं चले लेखनी ,
कभी नहीं होत ठिकाना ।।
जहाॅं न पहुॅंच पाए रवि ,
वहाॅं पहुॅंच पाता है कवि ।
डाल पात नचाने वाला ,
समीर ऑंधी तूफाॅं छवि ।।
तूफानों की ऐसी तीव्रता ,
उखाड़ ले भव्य पेड़ों को ।
हिला रख देता सिंहासन ,
उन तानाशाही शेरों को ।।
काव्य ही कवि कवयित्री ,
कवि कवयित्री ही काव्य ।
कवि है जड़ चेतन मूलक ,
कवि कवयित्री संभाव्य ।।
काव्य अनोखी राष्ट्रभक्ति ,
काव्य संस्कृति की राह ।
वतन हेतु ही जीना मरना ,
न जीने मरने की परवाह ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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