मन करता है
मन तो है बहुत कुछ ही करता ,कहाॅं से कैसे करूॅं मैं भरपाई ।
रोटी कपड़े की नहीं होती पूर्ति ,
हौसला कहाॅं से हो अफजाई ।।
गृहस्थ आश्रम को मोह है घेरा ,
अन्य कार्य हेतु छा गया अंधेरा ।
मन विक्षिप्त रहता है सदा ही ,
क्या करूॅं यही समय का फेरा ।।
मन तो करता जहाज में उड़ूॅं ,
विदेशों का कर लूॅं सैर सपाटा ।
अंगूर तो मुझसे है बहुत ऊपर ,
इसीलिए अंगूर है बहुत खाटा ।।
बरसे गर देव देवी की ये महिमा ,
मन करता है धर्मस्थल घूम दूॅं ।
हो जाए पूर्ण मेरी मनोकामना ,
देव देवियों की चरण चूम लूॅं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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