चार दिनों का मेहमान
समझ गया हूॅं मैं ये तेरा राज ,मैं भी तो तुझ सा इंसान हूॅं ।
तू मुझको नादान समझता ,
न दूधपीता बच्चा नादान हूॅं ।।
जहाॅं से आया तू है जहाॅं में ,
वहीं का मैं भी तो अवदान हूॅं ।
चार दिनों का मेहमान तू भी ,
चार दिनों का ही मैं मेहमान हूॅं ।।
तुम तो बने हो अंजान मुझसे ,
तू समझता है मैं ही अंजान हूॅं ।
तुम बने हो अंजाने में ही राम ,
अंजाने में ही तेरा हनुमान हूॅं ।।
बन गए हो तुम यदि एक रावण ,
मैं विभीषण शुभेच्छु महान हूॅं ।
तुम मेरा अभिमान अगर हो ,
तो मैं भी तेरा ही अभिमान हूॅं ।।
बन जाओ तुम ये मेरा जहान ,
बन जाता मैं भी तेरा जहां हूॅं ।
बन जाओ मेरा त्राण अगर तू ,
तो मैं भी बना तेरा परित्राण हूॅं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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