औरत एक समर्पण है,
वो जिस्म नहीं रूह से जुड़ती है,वो हक़ जताती है चीखती, चिल्लाती है,
मगर तब तक,जब तक वो
किसी को अपना मानती है।
तब तक जब तक उसे
खोने का डर होता है।
और तब तक ही जब तक
उसके आख़िरी आँसू
न बहकर निकल गये हों।
फिर जन्म लेती है एक सशक्त नारी,
जिसे न बहकावे न छलावे
की होती है ज़रूरत।
जो लौटा चुकी होती है उस इंसान को
उसके भीख जैसे दिये हुए वक़्त को,
जो निकाल लेती है खुद को
झूठ के मायाजाल से,
पूर्ण समर्पिता होकर भी
जब आधा मिलता है प्यार उसे,
वो उस आधे को ठुकराकर
स्वयं को स्वयं से पूरी कर लेती है।
नई रोशनी में सम्पूर्ण ऊर्जा लिए,
नकारात्मकता से दूरी कर लेती है।
डॉ रीमा सिन्हा (लखनऊ )
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