आज यह कैसा सृजन हो रहा है,
अपने ही हाथों पतन हो रहा है।काट कर वन, वृक्ष और पेड़ सारे,
कंक्रीट का उपवन सघन हो रहा है।
आती नहीं हवाएँ पूरब पश्चिम से अब,
ए.सी.की हवा का चलन हो रहा है।
भीतर तो ठंडा मगर बाहर गरम है,
आज हर कुंचा अगन हो रहा है।
देखकर हालत अपने चमन के,
खून के आँसू वतन रो रहा है।
दिखते नहीं पशु-पक्षी, तितली-भोरें,
सूना-सूना सा चमन अब हो रहा है।
है यहाँ चिंता किसे कल के जहां की,
आज के सुख में आदमी मगन हो रहा है।
करते बातें पर्यावरण की दफ्तर में बैठकर,
विकास का ठेका अर्पण उन्हें हो रहा है।
काट डाले पेड़, पौधे और उपवन सभी,
फाइलों में वन सघन पर हो रहा है।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
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