बुझाते नइखे

बुझाते नइखे

बुझाते नइखे जे अइसन काहे भ‌इल,
पुरनका दिन सब,कहाँ चल ग‌इल।
धरती त अबहिओ उहे बाड़ी,
बाकिर आउर सब कुछ बदल ग‌इल।
गाछी पर जबसे टिकोढ़ा लागे,
तबे से ल‌इकन के भाग जागे।
घर आ बागान के फेरा लागत रहे,
जेतना दिन ले बगीचा में आम रहे।
ओहू समय धूप आउर लू चलत रहे,
बाकिर केहू के आम छोड़ के लू के चिंता ना रहे।
माथा पर गमछा, कांख तर प्याज,
धूप लू से बचे खातिर देहाती टोटका,
हमनीं भुलल न‌इखीं कबो आज।
रोहिन के पानी पड़त हीं,
गाछी पर आम पाके लागे।
पाथारी पर जाव घेराई में,
जब पक के आम टपके लागे।
पाराती आम बिने खातिर,
रात भर ना नींद पड़े।
अधरतिये आम का घेराई में,
ल‌इकन सब पहुँच जाव दौड़े दौडे़।
तीन चार महीना आषाढ़ सावन तक,
आम बागान ओघरी स्वर्ग बुझाइल।
गाछ बिरिछ कट के रेगिस्तान भ‌इल
पुरनका दिन सब, कहाँ चल ग‌इल। 
 जय प्रकाश कुवंर
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