अब,मैं तुम्हें चाहने लगा
अंतरंग विमल प्रवाह,प्रीत पथ भव्य लगन ।
मृदुल मधुर चाह बिंब,
तन मन अनंत मगन ।
निहार अक्स अनुपमा,
हृदय मधुर गाने लगा ।
अब,मैं तुम्हें चाहने लगा ।।
जनमानस व्यवहार पटल,
सर्वत्र खनक सनक ।
परिवार समाज रिश्ते नाते,
सबको हो गई भनक ।
हर घड़ी हर पहर मुझे,
प्रीत नशा छाने लगा ।
अब,मैं तुम्हें चाहने लगा ।।
दृष्टि सृष्टि परिध क्षेत्र ,
हर जगह तुम्हारा रूप ।
राग रंग श्रृंगार परिधान,
तुम्हारी रूचि अनुरूप ।
अधरों पर सबसे पहले,
नाम तुम्हारा आने लगा ।
अब,मैं तुम्हें चाहने लगा ।।
अंतर्मन घुंघुरू मृदुल लय,
मिलन विरह अनूप छवि ।
दर्शन आनन रमणीयता ,
मस्त मलंग तरंग नवि ।
तुम्हारी तरुण सौरभ संग,
जगत मोह जाने लगा ।
अब,मैं तुम्हें चाहने लगा ।।
महेन्द्र कुमार
(स्वरचित मौलिक रचना)
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