चीटियाँ।

चीटियाँ।

वैसे तो चीटियाँ पृथ्वी पर पाये जाने वाले जीव जन्तुओं में एक अत्यंत सुक्ष्म जीव हैं। परंतु धार्मिक दृष्टिकोण से चीटियों को एश्वर्य का प्रतीक माना जाता है, खास कर काली चीटियों को। हमलोगों के यहाँ काली चीटियाँ और लाल चीटियाँ, जिसे पिपीलिका या पिपरी कहते हैं, साधारणतया देखने को मिलती हैं। पहले के दौरान बरसात के मौसम में चीटियों के झुंड का निकलना एक सामान्य घटना हुआ करता था। जो आज कल शहर की बात तो दूर, अब गाँव देहात में भी कम ही देखने को मिलता है। लगता है चीटियाँ भी अब गीध और गौरैया पक्षी की तरह धीरे धीरे लुप्त होती जा रही हैं।
हमें याद है कि जब हम छोटे थे और गांव में रहते थे तो उस समय बरसात शुरू होते ही हजरों लाखों चीटियों का झुंड हम लोगों के घर में तथा घर के बाहर भी निकलता था और एक स्थान से दूसरे स्थान की तरफ पंक्तिबद्ध होकर जाता था। ज्यादातर चीटियों के मुख में उनका सफेद छोटा छोटा अंडा हुआ करता था । माँ तथा दादी उनको देखते ही उनके रास्ते पर आटा अथवा सतू में चीनी अथवा महीन पिसा हुआ गुड़ मिलाकर छिट देती थी। जिसे चीटियों का झुंड खाता था तथा अपने मुंह में लेकर आगे की ओर बढ़ जाता था। उनका मानना था कि इस तरह चीटियों को हर रोज मीठा आटा और सतू खाने के लिए देने से वे आप को पहचान कर दुआ देती हैं और आप हर तरह के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
चीटियों के झुंड का बरसात के मौसम में निकलना और स्थान बदलना उन दिनों एक सामान्य घटना हुआ करता था कारण बरसात की वजह से निचले जगहों में पानी भर जाता था और उनका जमीन के नीचे जटिल भूमिगत बनाया हुआ घोंसला नष्ट हो जाता था। अतः अपना और अपने अंडे बच्चों की प्राण रक्षा हेतु वे स्थान बदल कर उंचाई वाले जगहों में चली जाती थीं। अब गाँव देहात में भी रहन सहन और परिवेश में बदलाव के कारण चीटियों का झुंड बहुत ही कम यदा कदा देखने को मिल रहा है।
वैसे चीटियों का रहना मनुष्य जीवन के लिए नितांत जरूरी है, क्योंकि ये परिश्रम और दृढ़ता की पहचान हैं। ये सुक्ष्म जीव चीटियाँ हीं है, जो अपने वजन से क‌ई गुना भारी वजन की वस्तु को ढो ले जाती हैं। उनका समूह में रहना और मिलजुल कर काम करना मनुष्य के लिए बहुत बड़ी शिक्षा है। चीटियाँ कभी हार नहीं मानती और अपना काम निपटा कर ही दम लेती हैं। थोड़ी सी असुविधा के बावजूद भी हमें अपनी माँ, दादी और पुर्वजों के अनुरूप चीटियों को प्रश्रय देना चाहिए।
जय प्रकाश कुंवर

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