अपना सूरज स्वयं बन जाओ
निर्जन कानन में नर्तन कर,
मयूर करता मन की नीरवता दूर।
गुल्म में भी विहँसता पुहुप,
बिन माली के सुदूर।
संयोग,वियोग की कुंठा से,
मन होता है अवसादित।
उन्मीलित हो कुमुदिनी
पंक को भी करती आच्छादित।
माना रिक्तता बहुत है,
पर स्वयं ही उन्हें हटाना पड़ता।
बनकर देवकीनंदन गोवर्धन,
स्वयं है उठाना पड़ता।
ऋतुओं की क्रूरता से
अचला कब विकल होती है,
व्रण को ढाल बनाकर
वह और भी अटल होती है।
ज्यों वादियों के गलियारे में
अनुगुंजित होती मधुर ऋचाएँ
बन जायें स्वयं सूरज अपना,
सदा सुमति हम अपनायें।
डॉ रीमा सिन्हा(लखनऊ)
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