आधुनिक पॉलिटिक्स के आधारभूत तथ्य

आधुनिक पॉलिटिक्स के आधारभूत तथ्य

,- प्रो रामेश्वर मिश्र पंकज

यूरोप में चर्च के उत्तराधिकारी कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने जो कम्युनिज्म की रचना की उसमें चर्च की सारी मूल प्रवृत्तियों को स्वीकार कर लिया और उसका एक मैटेरियलिस्टिक विश्लेषण दिया।

उसमें यह स्पष्ट था कि जो विद्वान है जैसे कि पादरी होते थे उसी प्रकार के नए बौद्धिक हैं तो वह जो लक्ष्य रखते हैं उस दिशा में लोगों को मोटिवेट करने के लिए उनको प्रेरित करने के लिए बातें कहते हैं और उसमें जो आपस का सच है वह जनता को नहीं बताना है उनसे छुपाना है क्योंकि अगर वह बता देंगे तो वह भी प्रतिस्पर्धी हो जाएंगे सत्ता में।

तो लोगों से वह कहना है जिससे वह मोटिवेट हो और कम्युनिस्ट पार्टी को सत्ता दिलाने के लिए एकजुट हो।

इसके लिए उन्होंने बहुत ही विशाल लफ्फाजी या शब्दावली रची और फिर उसे एक आईडियोलॉजी नाम दे दिया। ईसाई लोग द्वारा चर्च में जिसे थियोलॉजी कहा जाता था, मटेरियल पदावली में उसे आईडियोलॉजी कहा गया ।

ना तो कभी साधारण आईसाइट को थियोलॉजी का मर्म बताया जाता है या पता होता ।

ना ही कभी कम्युनिस्ट पार्टी के सामान्य अनुयाई को आईडियोलॉजी का रहस्य बताया जाता है या पता होता।

जवाहरलाल नेहरू आदि ने जो भारत में इसका विस्तार करना चाहा तो हिंदी में तथा अन्य भारतीय भाषाओं में उसे विचारधारा प्रचारित कर दिया ।अब यह जो विचारधारा है अथवा आईडियोलॉजी है यहजिन लोगों को अपने अंग बनाना है, चेले बनाना है अनुयाई बनाना है उनको मोटिवेट करने के लिए प्रायोजित एक लफ्फाजी होती है जिसमें कभी भी आपस के सत्य नहीं बताए जाते और इस लफ्फाजी यानी आईडियोलॉजी का उद्देश्य लोगों को इस प्रकार से प्रेरित करना है कि वह कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे के तले आए ताकि उनके द्वारा सत्ता पर कब्जा किया जाए और फिर अतिशय क्रूरता और कठोरता के द्वारा अपने सभी विरोधियों को नष्ट करके अपने छोटे से समूह के हाथ में पूर्ण सत्ता रखी जाए।

विचारधारा का प्रयोजन ही यही है।।

यूरोप में मॉडर्न स्टेट का उदय डेढ़ सौ वर्ष पूर्व हुआ यह स्टेट चर्च का उत्तराधिकारी है और इसमें चर्च के पादरी तथा वहां के अभिजन वर्ग ही इसके नियामक हैं ।

इस स्टेट का उद्देश्य अपने द्वारा शासित संपूर्ण क्षेत्र पर पूर्ण नियंत्रण और आधिपत्य स्थापित करना है और वहां के सभी जनों को जिनको विगत 100 वर्षों में नागरिक कहा जाने लगा है उनको अपने अधीन इस प्रकार नियंत्रित करना है कि उनका जीवन स्टेट के नियंत्रण में चले उनकी कोई भी क्रिया स्टेट के कंट्रोल से बाहर नही हो।

यह स्टेट का उद्देश्य है ।

राज्य का उद्देश्य यानी भारतीय परंपरा में राज्य का उद्देश्य इस से नितांत पृथक है। वहां राज्य का लक्ष्य संपूर्ण प्रजा यानी शासित संपूर्ण जन की धर्म मय मान्यताओं प्रथाओं परंपराओं का संरक्षण करना और उनमें विघ्न डालने वाले कंटकों का शोधन करना और दुष्टों का दलन करना है ताकि समाज अपने स्वभाव के अनुसार चलता रहे ।समाज की हर इकाई अपनी-अपनी मर्यादा में रहे और वह इस तरह से व्यवहार करें जिससे आपस में कोई कलह और टकराना नही हो और न्याय के आधार समाज में प्रचलित शास्त्र और मान्यताएं ही रहेंगे ।

उनके अनुसार ही न्याय किया जाएगा और इस समाज की रक्षा रूपी इस कार्य के लिए प्रजा राजा को कर देगी ।

इस प्रकार राजा प्रजा का सबसे प्रिय होता है और राज्य सबसे महत्वपूर्ण अंग होता है क्योंकि वह सब की राजनीतिक भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। वह उन पर नियंत्रण और आधिपत्य नहीं करता ।केवल उन्हें मर्यादित रखता है ताकि धर्म का मान्यताओं का समाज की परंपराओं का प्रवाह चलता रहे और राज्य कंटकों का शोधन करता है तथा आतता ई को दंड देता है।

इस प्रकार राज्य और स्टेट मेंआकाश पाताल पटल का अंतर है।

संक्षेप में इतना ही।।

राज्य और स्टेट की दुविधा में पिसता हिंदू समाज

हिंदू समाज की वास्तविक मुश्किल है कि हजारों लाखों वर्ष से इसमें राज्य के अपने राज्य के अपने प्रिय राज्य और राजा के होने के संस्कार हैं और वैसा ही गहरा अपने राज्य से प्रेम है।

जानबूझकर अंग्रेजी भाषा लाद कर उसका झूठा अनुवाद करके अंग्रेजों के उत्तराधिकारियों ने पाप मय यूरोपीय स्टेट को ही राज्य बता दिया ।

अब जो इस स्टेट के चलाने वाले खिलाड़ी हैं वह सब जानते हैं और वे चित्त से यूरोपीय ईसाई हो चुके हैं ।

लेकिन जो जनता है , नागरिक है उनको तो राज्य का स्वभाव है राज्य के संस्कार है राज्य की आदत है और वह इस स्टेट को अपना राज्य मानते हैं .

जब स्टेट में बहुत थोड़े से लोगों का एकाधिकार नहीं चला तो जो वहां उत्पाती तत्व थे उनको भी समायोजित करने के लिए वहां के अभिजन ने पार्टी सिस्टम को भी स्वीकार किया जिसमें मूल शासक तो वहां के राजा और रॉयल हाउसऔर अभिजन ही रहे परंतु उसमें पार्टियों को अपना दबाव ग्रुप बनाने की छूट मिली ।

फिर धीरे-धीरे पार्टियां अधिक प्रभावशाली होती गई और राजा और रॉयल हाउस और अभिजन पीछे से काम करनेवाले । इन्होंने राज्यसभा जैसा अलग संसद upper हाउस बनाया।

वहां सभी पार्टियां किसी न किसी समूह को प्रतिनिधि होते हैं और यह घोषित रूप से उस समूह के लिए काम करते हैं। लोकतांत्रिक यूरोप में सब जगह हर दल घोषणा कर देता है कि हमें इस समूह के लिए विशेष काम करना है।

कोई भी पूरे समाज के लिए काम करने का दा वा नहीं करता और उसे छिपाने के लिए कभी-कभी स्टेट की सर्विस करने या नेशन स्टेट की सर्विस करने की बात होती है ।तो वहां उद्देश्य समाज की रक्षा करना या समाज का पोषण करना नहीं है ।

स्टेट की सर्विस यानी राजन वर्ग की सेवा करना ही होता है ।

अब दिक्कत यह है कि भारत में हिंदुओं को जो राज्य के संस्कार पड़े हैं , उसमें वह हर दलसे यह सुनना चाहते हैं कि वह संपूर्ण समाज का हित करेगा और पार्टी चलाने वाले चतुर सुजान लोग यह जानते हैं तो यहां का हर दल संपूर्ण समाज की बात करता है और फिर धीरे से अपने जिस समूह का पक्षधर होना है उसकी बात कहने लगता है तो कांग्रेस और कम्युनिस्ट तो इसमें माहिर थे ।

कांग्रेस का वह धड़ा जो वामपंथी झुकाव रखता था वह इसमें दक्ष था और कम्युनिस्ट दक्ष थे ।तो उन्होंने अपने-अपने समूह चुन लिए और खुलेआम उनके प्रति पक्षपात पूर्ण व्यवहार करने लगे ।

उस स्टेट के आतंक से त्रस्त मध्यवर्गी हिंदुओं ने जब पार्टी बनाई तो उनमें राज्य के संस्कार थे।

स्टेट से वे अपरिचित थे और बौद्धिक स्तर पर आज तक अपरिचित है ।

इसलिए वह सदा संपूर्ण समाज की हृदय से बात करते हैं मन से बात करते हैं परंतु यह जो मॉडर्न स्टेट है इसमें संपूर्ण समाज का प्रतिनिधित्व कोई दल कभी कर ही नहीं सकता।

इसलिए अन्य जो द ल हैं भाजपा को छोड़कर वह तो अपने-अपने समूह के हित के लिए खुलकर उद्दंडतापूर्वक निर्लजता पूर्वक कार्य करते हैं और भाषा सारे समाज की बोलते रहते हैं क्योंकि जान लिया है कि हिंदू समाज इस विषय में पुराने संस्कारों का होने के कारण भोला है या ठगा जा सकता है और भाजपा हिंदू संस्कारों के कारण संपूर्ण समाज की बात करती है तो अंत में उस से समाज के जो उद्दंड और आक्रामक समुह हैं वह इससे राज्य का अधिकांश ले जाते हैं और यह उनके सामने विवश हो जाती है क्योंकि इसे स्टेट के प्रयोजन का पता नहीं है और भारतीय राज्य व्यवस्था को फिर से कैसे हिंदू राष्ट्र या भारतवर्ष में लागू करना है इसके विषय में कहीं कोई चिंतन नहीं है केवल शुभ भावनाएं हैं और उच्च विचार हैं इसलिए इसकी दूविधा बहुत गहरी है।

अब आगे क्या?

प्रश्न उठता है कि अब आगे क्या ?

उत्तर बहुत स्पष्ट है।

पहली बात तो यह कि भाजपा धीरे-धीरे अनुभवी पार्टी बनती जा रही है और उसके शीर्ष लोग राजनीति के खिलाड़ी होते जा रहे हैं तो हो सकता है कि वे भी यूरोपीय ईसाइयों की ही भांति हो जाए जैसे कि कांग्रेसी सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट हैं और वह संपूर्ण समाज को अपने ढंग से बहलाएं ।

परंतु कुछ तो काम करेंगे ही।

दूसरा यह हो सकता है कि उनमें मेधावी लोग और संस्कारी लोग आगे आएं ।जैसे मोदी जी में हम संस्कार देखते हैं तो वह सोचें कि जब तक यह सिस्टम है तब तक क्या करना है और इस सिस्टम को बदलने के लिए क्या करना है।



सिस्टम के बदलने के विषय में अलग से आगे चर्चा करेंगे ।



मुख्य बात यह है कि सिस्टम में भाजपा को तय करना होगा कि व्यवहार में तो ठीक चुनाव के समय आदरणीय मोदी जी बहुत खुलकर आ गए थे परंतु एक दीर्घकालिक एक योजना बनानी पड़ेगी। सबका साथ सबका विकास एक सुंदर नारा है परंतु जिनका विकास नहीं हुआ है या जिनके साथ अन्याय हुआ है वह द्विज जातियां हैं यानी ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य। तो कुशलता से उनका पक्ष लेना पड़ेगा और उसके लिए राजनीतिक पदावली सीखनी होगी जिसकी चर्चा फिर कभी मैं अलग से करूंगा ।



परंतु मोदी जी जैसे बुद्धिमान लोग स्वयं भी अपनी पदावली विकसित कर सकते हैं।



मोदी जी में बहुत प्रतिभा है और बहुत कुछ जानते हैं।

परंतु कहीं-कहीं फंस गए भी लगते हैं।



अब इसमें सबसे बड़ी समस्या यह आ रही है कि आप यानी भाजपा के समर्थक लोग लगातार तो यह बताते हैं कि मजहबी उग्रवाद से खतरा है आतंकवाद से खतरा है जिससे कि मजहबी उग्रवादी तत्व सावधान हो जाते हैं और अपनी पूरी शक्ति झोंक देते हैं और वह शक्ति षड्यंत्र की है और सभी जानते हैं कि मजहबी उग्रवादी जो है वह संसार के सर्वाधिक लुच्चे और लफंगे लोग हैं ।झूठ बोलने में उन्हें कोई झिझक नहीं होती और विक्टिम कार्ड खेलने में भी अद्वितीय हैं और रंग बदलने में भी गिरगिट को मात करते हैं तो ऐसी स्थिति में आप आप यानी भाजपा के जो समर्थक बौद्धिक या लेखक या सोशल मीडिया में कार्यरत लोग हैं वह इस तरह से मजहबी उग्रवाद और आतंकवाद का हल्ला मचाकर और उसे भारत के लिए खतरा बता कर और यह कहकर कि बस तो सन 2050 तक भारत मुसलमान ही हो जाएगा आदि आदि कहकर क्या सिद्ध करना चाहते हैं ?कई बार लगता है कि वह संसार के सबसे मूर्ख लोग हैं।



किसके लिए यह हल्ला करते हैं ?

भाजपा के सिवाय तो कोई पार्टी है नहीं जिससे कोई आशा है ।



इसलिए सारे संसार में यह नियम है कि राजनीति में बौद्धिक लोग जो भी काम करते हैं वह अपने मूल राजनीतिक दल या संगठन से सलाह करके करते हैं।यहां तो अपने को हिंदू पक्ष का मानने वाले में से अधिकांश अराजकतावादी है।कुछ भी लिखते हैं और उसविषय का अध्ययन भी नहीं करते और भाजपा से सलाह भी नहीं लेते ।

बस भाजपा के प्रति अपनी निष्ठा दिखाते हैं या संघ के प्रति निष्ठा दिखाते हैं ।



संघ से तो आप क्या सलाह लेंगे?

क्योंकि संघ ने आज तक तो कोई राजनीति शास्त्री या राजनीतिक क्षेत्र का बौद्धिक काम किया ही नहीं है ।

दीनदयाल उपाध्याय जी के बाद वहां कोई राजनीतिक चिंतक तो हुआ ही नहीं तो संघ से बौद्धिक विषय में आप क्या सलाह लेंगे सिवाय मूल आदर्श और तत्वों के। इसके बाद इसके सिवाय उसके पास देने को कुछ भी नहीं है ।

बौद्धिकों के लिए देने को संघ के पास कुछ नहीं सिवाय प्रेरणा और आदर्श के।



तो अंत मेंभाजपा से ही परामर्श या मार्गदर्शन लेना होगा ।



भाजपा में शीर्ष स्तर पर एक ऐसा मार्गदर्शक मंडल बनाना होगा जो सूत्र रूप में या संक्षेप में या विस्तार में जैसा उचित समझे लोगों को सलाह और मार्गदर्शन देता रहे कि किन मुद्दों को कैसे उठाना

ठीक है ।

कर्म क्षेत्र में भाजपा है इसलिए व्यावहारिक परामर्श तो अंततः उनका ही लेना होगा।

हमारी किस बात का समाज में क्या असर होगा और उस से हमारा पक्ष यानी भाजपा शक्तिशाली होगी या कमजोर होगी इसकी सलाह तो नियमित आवश्यक है ।

एक मार्गदर्शक मंडल आवश्यक है।

पूर्ण सद्भाव से हिंदुत्व के प्रति प्रेम और राग से भरे हुए भी आप लिखते हैं लेकिन अगर आपके लिखने से हिंदू समाज और हिंदू संगठन का अहित होता है तो आपका वह भाव किस काम का?

वह तो उन चे लों के जैसा है जिसमें दो चेले गुरुजी के दाएं पैर बाएं पैर की रक्षा कर रहे थे और मक्खी के बैठने से दोनों एक दूसरे के पैर को पीटने लगे और गुरु जी के पैरों को घायल कर डाला।

आत्मज्ञान की यात्रा अकेले होती है केवल गुरु के परामर्श से।

राजनीतिक यात्रा तो सामूहिक विमर्श से ही संभव है और उसमें एक केंद्रीय मार्गदर्शन अत्यावश्यक है।

सत्ता में सहभागिता ही राजनीति का आधार है

स्टेट का ढांचा और प्रक्रिया अलग है, राज्य का अलग।उस पर हमने पूर्व में चर्चा की परंतु एक बात जो सब जगह राजनीति को लेकर सामान्य है, वह है कि सत्ता में सहभागिता ही राजनीति है।

स्टेट में पार्टियां छीन झपट करके दबाव देकर झगड़कर सत्ता में अपने समूह के लिए सहभागिता पाती रही है।

वही ढांचा भारत में लिया गया है 77 वर्षों से.

परंतु भारत में भी राजनीति का अर्थ सत्ता में सहभागिता ही रहा। अंतर यह है कि यहां वह बहुत व्यवस्थित है।

कुलों की सहभागिता ,ग्रामों की सहभागिता, वर्णों जातियों की सहभागिता, संप्रदायों की सहभागिता विद्या समूहों की सहभागिता औरखाप पंचायत आदि सभी स्तरों पर सहभागिता को सुनिश्चित करने का एक विराट वितान भारतीय राज्यातंत्र में और भारत के राजनीति शास्त्रों में स्पष्ट वर्णित है और 1947 तक टूटे-फूटे रूप में 300 से अधिक हिंदू राज्यों में वह चल रहा था।

अंग्रेजों के उत्तराधिकारियों ने सहसा यह यूरोईसाई ढांचा थोप दिया।

अब थोप दिया तो थोप दिया। अभी तो यही है ।क्योंकि ऐसा कोई पुरुषार्थरत समूह अभी अस्तित्व में ही नहीं है जो इसे बदलने के विषय में सोच भी रहा हो।

तो जो भी राजनीतिक दल सत्ता में रहना चाहता है उसे विशेष कर उन समूह को सहभागिता तो देनी ही होगी जिनके साथ खुलेआम अन्याय हुआ है या जो वंचित किए गए हैं।

यह समूह स्पष्ट रूप से हैं ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य।जिनकी कीमत पर लगातार दुनिया भर की लफ्फाजी की गई है समता और समाजवाद की और खुलेआम जातिवाद और लूट का जाल फैलाया गया है आरक्षण के नाम से।।

आवश्यक राजनीतिक सजगता बरतते हुए उन जातियों के साथ न्याय तो करना होगा और यह जातियां बहुत बड़ी है इसलिए आपको हर इलाके में संबंधित कुल समूहों को भी सहभागिता का अनुभव या भाव देना पड़ेगा।



कम्युनिस्ट सोशलस्ट कांग्रेसी तो विचार का इस्तेमाल लोगों को चुटिया बनाने और ठगने के लिए करते थे।

आपका तो वह प्रयोजन नहीं है और अब हिंदू समाज जाग भी चुका है।

तो विचारों की बात से कुछ भी नहीं होगा।

त्याग वृत्ति भी परंपरागत आदर्श से ही आती है। अन्यथा नहीं आती ।

विभिन्न समूहों को राजनीति में सत्ता में सहभागिता के बिना किसी विचार चाहे वह हिंदू एकता का ही विचार है का राजनीति में कोई भी प्रभाव टिकने वाला नहीं है।

क्योंकि एक तो हिंदू इतने मूर्ख नहीं है और दूसरे जितने मूर्ख हो सकते थे उतना समाजवाद के नाम पर बनाए जा चुके हैं और अब चौकन्ने हो गए हैं।

अब किसी अन्य वाद के नाम से आप उन्हे मूर्ख नहीं बना सकते ।

सब में सत्ता में सहभागिता की सजगता आ चुकी है।

समाजवादियों और कम्युनिस्टों से होड़ करते हुए जातीय या अन्य समूहों को अन्याय पूर्ण अधिकार सुविधा और संरक्षण देते हुए आप शेष समाज को राजनीति में सक्रिय नहीं कर सकते।

भावात्मक मुद्दों पर कर सकते हैं मंदिर के लिए , गौ रक्षा के लिए।

परंतु राजनीति में वे परिपक्व है और सत्ता में सहभागिता ही राजनीति का आधार है यह हर हिंदू को अगर वह संस्कारी है और थोड़ा भी पढ़ा लिखा है तो विदित है।

कूशिक्षा से ग्रस्त आधुनिक किस्म के बौद्धिक को यह तथ्य नहीं पता है और वह उन विचारों की दुनिया में जीते हैं, वह विचार जिनका संसार में कहीं अस्तित्व ही नहीं है।।

व्यावहारिक राजनीति के स्तर पर समूहों की पहचान और उनके साथ न्यायपूर्ण सहभागिता सुनिश्चित करने के उपाय देखने होंगे।

समाज के अधिकांश समुदायों के साथ अन्याय सिखाने वाला कोई भी हिंदुत्व संभव नहीं है और वह हिंदुओं को बहलाने वाला नहीं है।

यह तो है कि मजहबी उग्रवाद के विरुद्ध हिन्दू एकजुट हो सकते हैं और आंदोलित हो सकते हैं परंतु फिर आप को उग्रवाद के विरुद्ध आवश्यक नीतिगत और व्यवहारगत कदम उठाते दिखना होगा। ,(kramshah)



भाषण से भाषण पैदा होता है।

कर्म से ही कर्म पैदा होता है ।

चुनाव में मतदान भाषण नहीं कर्म है।



न तो भाजपा और ना ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ,

मजहबी उग्रवाद के विरुद्ध व्यावहारिक सार्थक और प्रभावी कदम उठाते आज तक दिखा है।



उस विषय पर भाषण हिंदुओं को एकजुट होने की प्रेरणा नहीं दे सकता जब तक कर्म साथ में न हो।

अंत में एक बात और।

सुशासन से आधुनिक ढांचे में कभी वोट नहीं मिलते क्योंकि आधुनिक ढांचा प्रतिस्पर्धा और परस्पर आक्रामकता का बना दिया गया है।

दूसरी ओर हिंदू मन में यह बैठा है कि शासन का तो कर्तव्य ही है सुशासन।।

इसलिए आपने सुशासन किया गुड गवर्नेंस की इसके कारण आपको चुनाव में वोट मिल जाए इसकी संभावना बहुत कम

है।

कुशासन के विरुद्ध आक्रोश जगा कर तो वोट मिल जाते हैं क्योंकि यह यूरोपीय ढंग का चुनावी प्रक्रिया का ढांचा ही प्रतिस्पर्धा और परस्पर आक्रामकता का है।

चुनाव के समय आपको कुछ विशेष कदम उठाने ही होंगे।

विपक्षी पार्टियों प्रलोभन के उठाती हैं। आप कोई सकारात्मक कदम उठा सकते हैं।

कुछ नया कुछ नया करना होगा। केवल सुशासन को लोग उचित महत्व नहीं देते।
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