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ना जाने हमनी किंहा,

ना जाने हमनी किंहा,

कब ले मानसून आई।
आशा जोहत लागता कि,
सब कुछ जर जाई।।
सूरज देव उगत हीं,
आपन रूप देखावत बाड़न।
आग बरषा के सूरज,
धरती के जलावत बाड़न।।
बेना, पंखा के कवनो मोल नइखे,
कुलर, एसी भी फेल भ‌इल।
सारा देह पसीना होके,
घमौरी निकल ग‌इल।।
देही पर कवनो कपड़ा,
पहिने के मन करत नइखे।
ना कुछ पहिनले भी,
परिवार में मन भरत नइखे।।
सारा देह नोंचत नोंचत,
दम निकलल जात बा।
गाछ बृक्ष काटला के,
माजा अबगे बुझात बा।।
आपना करनी के फल,
खुब हमनीं पावत बानी।
मूर्खता हमनीं में अइसन बा कि,
अबहीं ओ पेड़ ना लागावत बानी।। जय प्रकाश कुवंर
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