दो जून की रोटी

दो जून की रोटी

ईश्वर ने ही दिया है ये जीवन ,
खो जाता दो जून की रोटी में ।
परेशान रहता है जीवन सारा ,
भोजन आवास व लंगोटी में ।।
दो जून की रोटी नाम बहुतेरे ,
क्षुधा तृप्ति कहाॅं हो पाई है ।
एक जून की मिल पाई रोटी ,
दूसरे जून की योजना बनाई है ।।
आमदनी नित्य दस रुपए की ,
व्यय नित्य बारह की आई है ।
मची है गरीबों की त्राहि त्राहि ,
गरीबों को मार रहा महंगाई है ।।
दो जून की रोटी आजीविका ,
दो जून की रोटी हेतु कमाई है ।
किंतु हाय री बदकिस्मत मेरी ,
कभी हो नहीं पाती भरपाई है ।।
रोटी वस्त्र में ही जीवन है बीता ,
बहुत ही देखा सुनहरा सपना ।
सपना रह गया सपना बनकर ,
सपना बना नहीं कभी अपना ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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